दिल्ली और केन्द्र सरकार के बीच अधिकारों की जंग: सवाल जवाबदेही का

विवेक वार्ष्णेय

सुप्रीम कोर्ट के 11 मई, 2023 के फैसले को दस दिन भी नहीं बीते थे कि केन्द्र सरकार ने अध्यादेश के जरिए संविधान पीठ के सर्वसम्मति से दिए गए निर्णय को निष्क्रिय कर दिया। दिल्ली की ब्यूरोक्रेसी पर नियंत्रण को लेकर तकरीबन नौ साल से चली आ रही जंग खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के पांच साल के दौरान दो अलग-अगल निर्णय भी केन्द्र और दिल्ली सरकार के बीच खींचतान का हल नहीं निकाल सके हैं। नए अध्यादेश के बाद भी विवाद समाप्त नहीं हुआ है। 
संविधान पीठ का निर्णय और अध्यादेश 
संविधान पीठ के निर्णय में कहा गया है कि केन्द्र सरकार नया कानून लाकर उपराज्यपाल को अधिकार सौंप सकती है जो अभी तक उसके पास नहीं है। उपराज्यपाल के प्रशासनिक अधिकारों में बदलाव भी संसद द्वारा पारित कानून के जरिए किया जा सकता है। राष्टï्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली अधिनियम, 1991 की धारा 49 के तहत उपराज्यपाल तथा मंत्रिपरिषद को राष्ट्रपति के निर्देशों का अनिवार्य रूप से पालन करना होगा। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार ही केन्द्र सरकार ने बिना देरी के अध्यादेश जारी कर दिया और आईएएस तथा अन्य वरिष्ठ सरकारी अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार उपराज्यपाल के माध्यम से अपने पास रख लिया। 
सिविल सेवा प्राधिकरण का गठन
अध्यादेश के माध्यम से दिल्ली में सिविल सेवा प्राधिकरण का गठन किया गया है। प्राधिकरण की अध्यक्षता दिल्ली के मुख्यमंत्री करेंगें। इसमें मुख्यमंत्री के अलावा मुख्य सचिव और प्रमुख सचिव(गृह) सदस्य के रूप में शामिल रहेंगे। सिविल सेवा प्राधिकरण भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसरों के स्थानांतरण तथा उनकी पोस्टिंग तय करेगा। बहुमत के आधार पर निर्णय लेकर उपराज्यपाल को भेज दिए जाएंगें। इसका मतलब साफ है कि ट्रांसफर-पोस्टिंग में मुख्यमंत्री की प्रधानता नहीं रहेगी। मुख्य सचिव और गृह सचिव का सामूहिक निर्णय मुख्यमंत्री के फैसले को निष्प्रभावी कर सकता है। मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति में भी दोनों नौकरशाह फैसला ले सकते हैं। सरकारी अफसरों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई का अधिकार भी इस प्राधिकरण के पास रहेगा। बहुमत की सिफारिशों को उपराज्यपाल के पास भेज दिया जाएगा जो उसे लागू करेंगे। निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री को अल्पमत में लाकर उसकी सिफारिशों को दरकिनार करना लोकतांत्रिक व्यवस्था में कहां तक जायज है, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को एक बार फिर मंथन करना पड़ेगा।