कोविड अनाथ और भारत में गोद लेने की प्रक्रिया: चुनौतियाँ एवं अनुत्तरित मामले

सारा वर्धन और नेमत चड्ढा

कोविड 19 की दूसरी लहर में पूरे भारत में कितने हीं परिवार तबाह हो गए। मीडिया की व्यापक कवरेज के बावजूद एक डेमोग्रेफ़िक हिस्सा जो सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ यानि बच्चे उसके ऊपर ज़्यादा चर्चा नहीं हुई, वो हिस्सा अनदेखा रह गया। लेंसेट की एक स्टडी के अनुसार वैश्विक स्तर पर देखें तो पिछले साल कोविड की वजह से क़रीब 11,34,000 बच्चों ने अपने अभिभावको को खोया है। इन आँकड़ों में माता पिता में से एक या संरक्षक अभिभावक शामिल हैं। नेशनल कमीशन फ़ॉर चाइल्ड राइटस के मुताबिक़ 3500 बच्चों ने भारत में पेंडेमिक के दौरान अपने माता पिता दोनों को हीं खो दिया है। हालाँकि, लेंसेट रिपोर्ट के अनुसार ज़्यादा बच्चे अनाथ हुए है, उनकी रिपोर्ट के हिसाब से 1,16,263  नाबालिग़ बच्चों के माँ बाप की मार्च 2020 और अप्रैल 2021 के बीच मौत हुई है। इस तुलना में जिन बच्चों ने अपने प्राथमिक संरक्षक या दूसरे गॉर्डीयन को खोया है , वो संख्या 1,86,972 है। इस ट्रेंड से इन अनाथ बच्चों की नयी सब कटेगरी उभरती है जिसे कोविड अनाथ कहते हैं। इसकी वजह से सोशल मीडिया पर बच्चों को गोद लेने के लिए कितनी हीं तस्वीरें भरी रहती थीं। हालाँकि भारत में अडोपशन की क़ानूनी प्रक्रिया काफ़ी जटिल है और बच्चे को सीधे गोद लेने की बजाय किसी अधिकृत संस्था के द्वारा ये काम होता है, तो ऐसे में सोशल मीडिया का तरीक़ा चाइल्ड ट्रैफ़िकिंग की तरह काम कर रहा था। ऐसे महत्वपूर्ण वाईरल मेसेज ने ना सिर्फ़ गोद लेने हेतु  इच्छुक माता पिता को जो क़ानूनी प्रक्रिया के लम्बे इंतज़ार से बचना चाहते थे, ग़लत संदेश दिया बल्कि अपंजीकृत बच्चों के लिए देह व्यापार, ह्यूमन ट्रेफ़िकिंग और ज़बरन मज़दूरी के ख़तरे को बढ़ा दिया। हैरत की बात है कि इतने ज़रूरी मुद्दे की न्यूनतम जाँच हुई जो कि एडोपशन के बारे में कम जानकारी और इसके विषय में अफ़वाहों के खंडन की कमी की तरफ़ इशारा करता है।

भारत में एडोपशन मुख्यतः, हिंदू एडोपशन एंड मेनटेनेंस एक्ट 1956 (HAMA) और जूवेनाइल जस्टिस( केयर एंड प्रोटेकशन ऑफ़ चिल्ड्रेन) एक्ट ऑफ़ 2000 के तहत होता है। दोनों क़ानूनों के अलग प्रावधान और उद्देश्य है। HAMA हिंदुओं के और उनके द्वारा एडोपशन के लिए है। यहाँ ‘हिंदू’ की परिभाषा विस्तृत है क्योंकि ये बौद्ध, जैनी और सिख को भी शामिल करता है। ये एक गोद लिए बच्चे के लिए एक सामान्य बच्चे की तरह सारे अधिकार, जैसे सम्पत्ति उत्तराधिकार को सुनिशचित करता है। जूवेनाइल जस्टिस( केयर एंड प्रोटेकशन ऑफ़ चिल्ड्रेन) एक्ट ऑफ़ 2000 के पहले ग़ैर हिंदुओं के लिए गार्डीयन एंड वार्ड एक्ट 1980 ( GWA)  हीं एकमात्र तरीक़ा था अपने समुदाय के बच्चों को गोद लेने का। चूँकि GWA किसी व्यक्ति को क़ानूनी अभिभावक नियुक्त करता है नाकि माता पिता , जैसे हीं बच्चा 21 वर्ष का होता है उसकी अपनी अलग पहचान हो जाती है। 

2015 में एडोपशन प्रक्रिया में चाइल्ड एडोपशन रिसोर्स एंड गाइडेंस सिस्टम ( CARINGS) आने से ख़ासा  बदलाव आया। इस सिस्टम के तहत, गोद लिए जाने लायक बच्चों और इच्छुक माता पिता का एक सेंट्रलाईजड डिजिटल डेटाबेस तैयार हुआ। CARINGS का उद्देश्य बिना किसी देरी के ज़्यादा से ज़्यादा एडोपशन को सहज करना। तब भी, वर्तमान एडोपशन प्रक्रिया कई चुनौतियों का सामना कर रही है जो ज़्यादातर अभिभावक केंद्रित अप्रोच की वजह से है। 

 

  1. लम्बा इंतज़ार, घटते स्टेटिसटिक्स और संस्थागत उदासीनता

डेटा को देखें तो जहाँ तक़रीबन 29000 एडोपशन इच्छुक अभिभावक हैं वहाँ सिर्फ़ 2317 बच्चे हीं एडोपशन के लिए उपलब्ध हैं। ये प्रस्पेक्टिव पेरेंट्स और बच्चों के बीच की बढ़ती खाई को दिखाता है जो गोद लेने की प्रक्रिया को और भी लम्बा करता है। हालाँकि CARINGS प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य एडोपशन प्रॉसेस को तेज़ रफ़्तार देना है पर इंतज़ार की मियाद बढ़ती हीं जा रही है। ये अंतर इस वजह से भी है कि 3 करोड़ लावारिस बच्चों में से सिर्फ़ 2,61,000 हीं संस्थागत संरक्षण में हैं जो कि मामूली 0.87% है। हालाँकि भारत में सभी चाइल्ड केयर इंस्टिट्यूशन ( CCIs ) क़ानूनी तौर पर रेजिस्टर्ड नहीं हैं। अपंजीकृत को भी मिलाकर यहाँ क़रीब 8000 CCIs हैं। अपंजीकृत संस्थाओं में बच्चे ख़राब देखभाल, शारीरिक हिंसा , यौन शोषण और ट्रेफ़िकिंग का शिकार होते हैं।

  1. बच्चों की वापसी के केस 

2017-19 के बीच सेंट्रल एडोपशन रिसोर्स अथॉरिटी ( CARA) ने अभिभावकों द्वारा गोद लिए बच्चों की वापसी का बढ़ता चलन देखा। CARA RTI के डेटा के अनुसार वापस किए बच्चों में 60% लड़कियाँ, 24% स्पेशल नीड़ बच्चे , और कई छः साल से ज़्यादा उम्र के थे। इसका मुख्य कारण था कि दिव्यांग और बड़े बच्चों को अपने एडोपटिव परिवार के साथ सामंजस्य बैठाना मुश्किल होता है। बड़े बच्चे नए माहौल के साथ तालमेल बैठाने में मुश्किल महसूस करते हैं और संस्थाएँ उन्हें नए परिवार के साथ कैसे एडजस्ट करना है उसकी कोई तैयारी नहीं करवाते। साथ साथ स्पेशल नीड बच्चों को नए घरों में उतना  सहानुभूति और संवेदनापूर्ण व्यवहार नहीं मिलता जिस वजह से एडोपटिव परिवार के साथ उनके लिए रहना बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है। 

  1. विकलांगता और एडोपशन 

जनवरी 2020 में CARA ने एडोपशन को सहज और स्ट्रीमलाइन करने के लिए चर्चा हेतु एक राष्ट्रीय कोंसेंसस आयोजित किया । इसमें चर्चा के अनेक बिंदुओं के बीच CARA ने संस्थाओं को विशेष ज़रूरत वाले बच्चों को  एक अलग वर्गीकृत कर , चौदह उप वर्गों में बाँटा। इस वर्गीकरण से PAPs को बच्चों की ज़रूरत बेहतर तरीक़े से समझने की सुविधा होगी जो एडोपशन की सम्भावनाओं को बढ़ाएगा। हालाँकि CARA द्वारा उपलब्ध कराए गए ताज़ा डेटा के अनुसार 2018 और  2019 में सिर्फ़ 40 दिव्यांग बच्चे गोद लिए गए, जो कि एक साल में कुल एडोपटेड बच्चों का तक़रीबन 1% है। सालाना ट्रेंड यही बताता है कि हर बीतते साल के साथ विशेष ज़रूरत वाले बच्चों की एडोपशन दर घटती जा रही है। इसके साथ ही विदेशियों द्वारा विशेष ज़रूरत वाले बच्चों के एडोपशन की दर तेज़ी से बढ़ रही है क्योंकि भारतीय PAPs जहाँ स्वस्थ बच्चे को गोद लेने का लम्बा इंतज़ार कर रहे हैं ऐसे में दिव्यांग बच्चों को गोद लेना उनके लिए आख़िरी विकल्प बचता है। विशेष ज़रूरत वाले बच्चों के प्रति सांस्कृतिक विद्वेष उन्हें ओवरसीज़ PAPS सम्बोधन की वजह बनती है। 

  1. उत्पादित अनाथ और चाइल्ड ट्रेफ़ीकिंग

2018 में राँची की मदर टेरेसा मिशनरी ऑफ़ चेरेटी पर बच्चे बेचने के रेकेट चलाने का आरोप लगा। एक नन ने ये स्वीकारा भी कि उसने शेल्टर से चार बच्चे बेचे हैं। इसके समान कई घटनाएँ सामने आती रहती हैं क्योंकि गोद लेने लायक बच्चों की उपलब्धता कम है और इंतज़ार में परेशान माँ बाप बिलकुल विचलित हैं। CARA के मुख्य दीपक कुमार के अनुसार, ट्रेफ़िकर ख़ासकर अविवाहित माँओं के बच्चों को ले लेते हैं और सरकारी अधिकारियों को भी बच्चा सौंपने के लिए मजबूर कर देते हैं। ये रेकेट ग़रीब और निम्न वर्ग के परिवारों के बच्चे हासिल करते हैं।  ख़ासकर बिन ब्याही माँओं को बहला कर , धमका कर ये ट्रेफ़िकिंग संस्थाओं झुका लेती है। फ़िर ये संस्थाएँ क़ानूनी दस्तावेज़ तैयार कर बाज़ार के लिए अनाथ बच्चे उपलब्ध कराती हैं। ऐसे बच्चों को मेनयूफेकचरड ऑरफ़न या पेपर ऑरफ़न कहते हैं। 2016  में पुलिस ने महाराष्ट्र में दो एजेंसी बंद करवायी जो शिशुओं को 2,00,000 से  6,00,000 रुपए में बेच रहे थे।

  1. LGBTQ+ पेरेंटहुड एवं प्रजनन ऑटोनोमी

परिवार की परिभाषा में निरंतर परिवर्तन के बावजूद एक आदर्श भारतीय परिवार के केंद्र में पति, पत्नी और पुत्र, पुत्रियाँ होते हैं। फ़रवरी 2021 में केंद्र सरकार ने LGBTQI + विवाह की पेटीशन की क़ानूनी वैधता पर सुनवाई करते हुए ये दलील दी कि LGBTQI + रिश्तों की तुलना भारतीय परिवार के यूनिट की जो धारणा है जिसमें कि पति,पत्नी और बच्चे होते है उससे नहीं किया जा सकता।

क़ानून की नज़र में LGBTQI+ विवाह एवं रिश्ते की अवैधता LGBTQI+ व्यक्तियों के पेरेंट बनने में अवरोध है, क्योंकि एक जोड़े के लिए बच्चा गोद लेने की पहली शर्त उनके विवाह का प्रमाण है। इन प्रतिकूल क़ानूनी प्रक्रियाओं के बीच ट्रान्सजेंडर में ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से बड़े पैमाने पर एडोप्शन सामान्य होता जा रहा है। तमिलनाडु में कुछ जगहों पर जो लोग अपने बच्चों का पालन पोषण नहीं कर पाते वो अपने बच्चों को ट्रान्सजेंडरस के पास छोड़ आते हैं। इसके अलावा सरोगेसी ( रेग्यूलेशन) बिल 2020 और असिस्टेड रीप्रोडकटिव टेक्नोलोजी ( रेग्यूलेशन) बिल 2020 LGBTQI+ परिवारों से उनकी प्रजनन या रीप्रोडकटिव ऑटोनोमी छीन लेता है। इसलिए बहुत से LGBTQI+ परिवारों की PAPs यात्रा शुरू होने से पहले हीं ख़त्म हो जाती है।

बच्चा केंद्रित अप्रोच या सोच की ओर?

CARINGS सिस्टम के बावजूद पहले से मौजूद क़ानूनी प्रावधानों का विवाद अभी भी अनसुलझा ही है। सामाजिक सांस्कृतिक जटिलताओं और सामाजिक क़ानूनी ढाँचे के अभाव में, देश में एडोपशन प्रक्रिया बच्चों के लिए प्रतिकूल है और उनका हित प्रमुख नहीं रह जाता। ये ख़ासकर वैसे बच्चों के लिए लागू होता है जो लावारिस हैं या ख़ुद समर्पण करते हैं या फिर अवैध ट्रेफ़िकिंग का शिकार होते हैं। संस्थागत नीतियों को मज़बूत करने के साथ साथ , एडोपशन एकोंसिस्टम को पेरेंट केंद्रित रवैये से चाइल्ड केंद्रित रवैये की तरफ़ मुड़ना चाहिए। मौजूदा नीति के अनुसार , एडोपशन माता पिता की परिवार पूरा करने की वो ज़रूरत है जिसे वो प्राकृतिक तौर पर पूरा नहीं कर सकते। इसके परिणामस्वरूप बच्चों का नज़रिया और हित एडोपशन प्रक्रिया से ग़ायब रहता है। इसके विपरीत उस इनकलुसिव ऐपरोच की ज़रूरत है जो बच्चों की उस ज़रूरत पर आधारित होता है जिसमें उसको अपनाने, उसके विकास और भलाई का माहौल बनाया जा सके। इस तरह बच्चों की भी एडोपशन प्रक्रिया में बराबरी की हिस्सेदारी होनी चाहिए।

 

सारा वर्धन, सोशल एंड पॉलीटिकल रिसर्च फ़ाउंडेशन में रिसर्च एवं सम्पादकीय इंटर्न हैं। इनके रिसर्च में जेंडर इंटरसेकशन, टेक्नोलोजी और शहरी स्टडीज़ शामिल हैं। वो नियमित रूप से दक्षिण एशिया में जेंडर एवं क्वीर और मुंबई की राजनीति एवं कल्चर पर कॉलम लिखती हैं।

 

नेमत चड्ढा , डॉक्टोरल शोधकर्ता एवं समाजशास्त्री हैं। इनकी शोध का केंद्र इल्नेस इंटरसेक्शन , प्रजनन, लेबर और पब्लिक पोलिसी है। 

 

 


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