अक्षिता शर्मा, सोमिहा चटर्जी
ग्रामीण भारत ने कोविड 19 की पहली लहर को तो चकमा दे दिया पर दूसरी लहर दूर दराज़ इलाक़ों में फैली और इससे काफ़ी तबाही हुई। दूसरी लहर का कम होता प्रकोप तीसरी लहर की आशंका से पछाड़ खा रहा है और ग्रामीण भारत के लिए ये विनाशकारी साबित हो सकता है।
महामारी के विषय में जानकारी की कमी, स्वास्थ्य सेवा सम्बंधी ग़लत जानकारी, टीकाकरण के प्रति हिचकिचाहट और स्वास्थ्य केंद्रों की कमी ने ग्रामीण इलाक़ों में बहुत हीं ख़राब सामाजिक आर्थिक और स्वास्थ्य हालात बना दिए हैं। इस भयावह स्थिति को और भी बुरा बनाती है दशकों से निष्क्रिय ग्रामीण मज़दूरी।
भारत में निष्क्रिय ग्रामीण मजदूरी
हालाँकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था धीरे धीरे विकसित हो रही है जो ग्रोस वैल्यू ऐडेड ( GVA) से पता चलता है जो 2019-20 में बढ़ कर 19,40,811 करोड़ रुपए हो गयी है ( चित्र 1) लेकिन ग्रामीण मजदूरी अलग ही कहानी बयान करती है।
चित्र 1 ग्रोस वैल्यू ऐडेड स्थिर बेसिक मूल्य पर – कृषि, वन और मत्स्य उद्योग
चित्र 2 और 3 में कृषि और ग़ैर कृषि सेक्टर में पुरुष और महिला दोनों की मजदूरी में ठहराव दिखता है। दोनों लिंगों के लिए ग़ैर कृषि सेक्टर में कृषि की बजाय ज़्यादा मज़दूरी मिलती है। इसका कारण खेती में बहुत ज़्यादा श्रमिकों की उपलब्धता है। 2014-15 में दिखी इस गाँठ को पारिश्रमिक बदलाव शृंखला 2013 से समझाया गया है। ये देखा गया है कि उस साल के बाद मज़दूरी में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा है।
ग्रामीण मज़दूरी बढ़ोतरी को कम करने वाले प्रमुख कारण
- आय का बढ़ती मुद्रा स्फीति से धीमा सामंजस्य : मुद्रा स्फीति का अर्थ है क़ीमतों के बढ़ने की वजह से पैसों की क्रयशीलता का कम होना है। इसलिए मुद्रा स्फीति की स्थिति में आय का बढ़ना ज़रूरी है ताकि आपकी ख़रीदने की क्षमता भी बढ़े। प्रमाण ये दर्शाते हैं कि भारतीय ग्रामीण मज़दूरी की प्रवृति बहुत अड़ियल है। वो बदलते बाज़ार के हालातों को जल्दी नहीं अपनाते हैं। इसका मतलब है कि जब अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति होती है तो मज़दूरी में उस अनुपात में कोई बदलाव नहीं आता , इस कारण असली मजदूरी और नीचे गिर जाती है।
अध्ययन के मुताबिक़ मजदूरी में थोड़ा बहुत संतुलन लम्बे अंतराल में हीं हो पता है। इसलिए ग्रामीण लागत मूल्य सूचकांक 2011 में 92.8 से लगातार बढ़ रहा है और 2020 में ये 154.31 हो गया है। मज़दूरी दर के अपरिवर्तित रहने से बढ़ती क़ीमतों के साथ तालमेल बैठाना मुश्किल है।
- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा ) के अधीन मजदूरी की व्यवस्थित सूचीकरण का अभाव – भूतपूर्व आर बी आइ गवर्नर डॉ० रघुराम राजन के अनुसार विभिन्न राज्यों में मुद्रा स्फीति दर के अनुपात में मज़दूरी दर में बहुत कम बढ़ोतरी हुई है जिसकी वजह से मज़दूरी और भी कम हुई है। नरेश सिंह रिपोर्ट ने मनरेगा मज़दूरी को CPI कृषि की जगह CPI रुरल के अंतर्गत सूचीकृत करने का सुझाव दिया है क्योंकि CPI रुरल मजदूरी वृद्धि का बेहतर सूचक है।
हाल के सालों में मनरेगा का कम बजट होने की वजह से ये कार्यक्रम रोज़गार और मजदूरी में बढ़त के लिए नाकाम साबित हुआ है। मनरेगा का बजट आवंटन 2020-21 में 37% कम कर दिया गया है जिससे कि आने वाले साल में मज़दूरी पर गहरा असर पड़ेगा क्योंकि ग्रामीण इलाक़ों में मनरेगा पर रोज़गार की निर्भरता बहुत ज़्यादा है।
चित्र 4 मनरेगा के लिए कुल बजट में से % में आवंटित बजट
- निर्माण क्षेत्र की सुस्त रफ़्तार – 2014 के बाद निर्माण क्षेत्र की रफ़्तार बहुत सुस्त पड़ गयी है जो 2000-12 तक काफ़ी तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। निर्माण सेक्टर में नियत निवेश 2012 में जी डी पी के 7% से घटकर 2019 में 15.3% हो गया। 2018 में सरकार के कैपिटल ख़र्च घटाने की वजह से निर्माण कम्पनियों ने उत्पादन में 15-60% की कमी कर दी।
इसकी वजह से कन्स्ट्रक्शन सेक्टर में रोज़गार घट गया है और गाँव से शहरी इलाक़े में मायग्रेशन भी कम हुआ है, खेती के लिए मज़दूर भी ज़्यादा उपलब्ध हैं और उनकी मजदूरी और भी कम।
कोविड 19 की मार के कारण हालत और भी बदतर हो गयी है । लॉकडाउन के कारण शहर से बड़ी संख्या में मज़दूरों का गाँव की तरफ़ पलायन हुआ है। इस वजह से ग्रामीण मजदूरी और भी कम हुई है और निर्माण क्षेत्र की विकास दर 2020 के चौथे क्वॉर्टर में घटकर 2.2% हो गयी है।
- कृषि लागत मूल्य में वृद्धि- भारतीय अर्थव्यवस्था को लगातार 2014-15 और 2015-16 में पड़े सूखे के कारण भारी नुक़सान हुआ है, जिससे कृषि जी डी पी और मज़दूरी में कमी आयी है। लागत मूल्यों में वृद्धि जैसे पेट्रोल और खाद की बढ़ती क़ीमतें और खुले बाज़ार की वजह से अंतर्राष्ट्रीय क़ीमतों में उतार चढ़ाव की गहरी संवेदनशीलता ने इस संकट को और भी बढ़ाया है। इसके साथ साथ सरकार की पारिश्रमिक मूल्य की माँग के प्रति उदासीनता, कृषि सम्बंधी स्कीमों में घटते बजट ने परेशानी गहरी कर दी है। कृषि संकट गहराने की वजह से किसानों की समस्या और भी प्रबल हुई है क्योंकि कृषि और ग़ैर कृषि सेक्टर में उन की मज़दूरी और भी गिर गयी है।
नीतिगत सुझाव
- मनरेगा का विस्तार और स्कीम के तहत काम करने के दिनों का इज़ाफ़ा। 2020-21 में मनरेगा के लिए आवंटित बजट जो 2020 में 111,500 करोड़ था वो 2021 में घटकर 73000 करोड़ हो गया यानि 38500 करोड़ की कमी की गयी। ग्रामीण इलाक़ों में इस स्कीम की भारी ज़रूरत की रोशनी में ये आवंटित राशि लोगों की रोज़गार ज़रूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
- कौशल उन्नतिकरण विकास कार्यक्रम द्वारा ग्रामीण इलाक़ों में कौशल की कमी को दूर करने के लिए उचित प्रशिक्षण देना जिसकी श्रम बाज़ार में भारी माँग है, इससे कृषि और ग़ैर कृषि दोनों सेक्टर में रोज़गार को बढ़ावा मिलेगा। यहाँ तकनीकी प्रशिक्षण की बदौलत ग्रामीण क्षमता का उचित इस्तेमाल भी किया जा सकता है।
- ग्रामीण आधारभूत ढाँचे जैसे प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में ख़र्च बढ़ाना जिससे ग्रामीण ग़ैर कृषि रोज़गार बढ़े और ग्रामीण मज़दूरी भी। स्कीम के प्रभाव आकलन से पता चला कि इसकी वजह से 63% घरों की औसत वार्षिक आय में वृद्धि हुई है। ग्रामीण आधारभूत सुविधा विकास फ़ंड में 30,000 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 40,000 करोड़ रूपए आवंटित किए गए हैं।ये एक सकारात्मक क़दम है।
- न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि कर विशेषज्ञ समिति के सुझावों को कार्यान्वित करना। 2019 के मजदूरी कोड के मुताबिक़ न्यूनतम मज़दूरी 178 रुपए प्रति दिन है जो अभी भी राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी 375 रुपए का आधा है जिसे श्रम मंत्रालय द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने सुझाया था।
- कृषि को और भी मज़बूत करना ताकि उससे अच्छी आमदनी और लचीलेपन की गुंजाइश रहे। प्रधान मंत्री किसान सम्मान निधि स्कीम का बजट 2020-21 से इस साल 10,000 करोड़ रुपए घट गया है। वैश्विक पर्यावरण संकट सूचकांक में 2021 में भारत का स्थान सातवें पर है पर पर्यावरण मंत्रालय ने इसका बजट 230 करोड़ रुपए कम कर दिया है। कृषि क्षेत्र की निरंतरता को क़ायम रखने के ज़ोर की कमज़ोरी कृषि और उससे सम्बंधित लोगों की मज़दूरी पर सीधा असर डालती है ।
लेखकों के विषय में:
अक्षिता शर्मा, सोशल एंड पोलिटिकल रिसर्च फ़ाउंडेशन में रिसर्च असोसिएट हैं। इनका प्रमुख कार्यक्षेत्र जेंडर, जन स्वास्थ्य, सामाजिक और व्यवहार परिवर्तन है।
सोमिहा चटर्जी, सोशल एंड पोलिटिकल रिसर्च फ़ाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं। इनका प्रमुख कार्यक्षेत्र अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और जेंडर है।