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विवेक वार्ष्णेय
एक कानूनी प्रक्रिया के तहत निर्वाचन आयुक्तों को नियुक्त करने का विधेयक संसद में पेश तो कर दिया गया है लेकिन इस पर अभी चर्चा नहीं हो पाई है। संसद में चर्चा होने से पहले ही यह विधेयक सुर्खियों में आ गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्वाचन आयोग का महत्व लगातार बढ़ता जा रहा है। टी.एन. शेषन ने निर्वाचन आयोग को लोकतंत्र का पांचवा स्तम्भ स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई थी। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए उन्होंने जो मुहिम छेड़ी, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। लोकतंत्र की जड़े मजबूत करने और भारतीय निर्वाचन आयोग को दुनियाभर में एक अलग पहचाने दिलाने में उनकी भूमिका अग्रणी रही।
विधेयक क्यों है महत्वपूर्ण
निर्वाचन आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त तथा चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए अभी तक कोई निर्धारित प्रक्रिया नहीं थी। संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत नियुक्तियों को अमलीजामा पहनाने का प्रावधान है लेकिन आजादी के बाद से इस संबंध में कानून नहीं बनाया गया। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस साल दो मार्च को दिए फैसले में चयन समिति को यह जिम्मेदारी सौंपी। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में चयन समिति का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया। इसमें सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और लोक सभा में विपक्ष के नेता को सदस्य मनोनीत किया गया। लोक सभा में विपक्ष का नेता न होने की स्थिति में विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता को चयन समिति में शामिल करने का निर्देश दिया गया।
प्रस्तावित चयन समिति में सीजेआई नहीं
मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्त(नियुक्ति, सेवा शर्तें और कार्यकाल) विधेयक, 2023 दस अगस्त को राज्य सभा में पेश किया गया। सितंबर 2023 में संसद के विशेष सत्र में भी इसे चर्चा के लिए लाया जाना था। यह कार्यसूची में भी था लेकिन महिला आरक्षण विधेयक पर लम्बी बहस के कारण इस पर चर्चा नहीं हो सकी। संसद के शरदकालीन सत्र में इसे लाया जाएगा या नहीं, यह पूरी तरह सरकार पर निर्भर करता है।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अपने 378 पृष्ठ के निर्णय में तीन सदस्यीय चयन समिति के गठन का निर्देश दिया था। विधेयक में सीजेआई के स्थान पर प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक कैबिनेट मंत्री को चयन समिति में रखने का प्रस्ताव है। ऐसे में विपक्ष के नेता की चयन समिति में स्थिति औपचारिक ही रह जाएगी। कई पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्तों का मत है कि सुप्रीम कोर्ट ने जिन तीन सदस्यीय चयन समिति का सुझाव दिया था, उसे अमल में लाना चाहिए जिससे नियुक्तियां सिर्फ पारदर्शी और निष्पक्ष ही न हो बल्कि दिखाई भी दें। सीबीआई और लोकायुक्त की चयन समिति में सीजेआई शामिल रहते हैं। इसलिए निर्वाचन आयुक्त की नियुक्तियों में भी उनकी भागीदारी समूची चयन प्रक्रिया को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने में सहायक साबित होगी।
नए विधेयक की विशेषताएं
मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्त(नियुक्ति, सेवा शर्तें और कार्यकाल) विधेयक, 2023 के कई प्रावधान अहम हैं। कैबिनेट सचिव के नेतृत्व में एक सर्च कमेटी के गठन का प्रस्ताव पेश किया गया है। इसमें सचिव स्तर के दो वरिष्ठ आईएएस अधिकारी भी रहेंगे। यह सर्च कमेटी सचिव स्तर के पांच अफसरों के नाम शार्टलिस्ट करेगी। इसी सूची से एक नाम चुना जाएगा। इनमें उन आईएएस अफसरों को प्राथमिकता दी जाएगी जिन्हें चुनाव कराने का प्रशासनिक अनुभव हो और जो ईमानदार तथा निष्ठïावान हो। इससे पहले निर्वाचन आयुक्त के पद के लिए कोई पैमाना निर्धारित नहीं था। किसी भी कार्यरत या सेवानिवृत्त नौकरशाह को निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किया जा सकता था।
निर्वाचन आयुक्त का ओहदा घटाया गया
नए विधेयक में निर्वाचन आयुक्तों का ओहदा घटा दिया गया है। अभी तक निर्वाचन आयुक्त का पद सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर रहा है। प्रस्तावित कानून में इसे कैबिनेट सचिव के स्तर का कर दिया गया है। हालांकि वेतन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है लेकिन दर्जा कम करने से कई विसंगतियां पैदा हा सकती हैं। चुनाव के दौरान निर्वाचन आयोग वरिष्ठ सरकारी अफसरों को आदेश पारित करता है। बैठकों में कैबिनेट सचिव, विधि सचिव और राज्यों के मुख्य सचिव को बुलाया जाता है। यदि प्रोटाकॉल में उसका ओहदा कम किया जाता है तो वह पहले जैसे अधिकार के साथ उनसे जवाब तलब नहीं कर पाएगा। इससे निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता और उसकी साख प्रभावित होगी।
निर्वाचन आयोग की महत्ता पर सुप्रीम कोर्ट का मत
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दो मार्च को दिए फैसले में निर्वाचन आयोग की महत्ता को विस्तृत रूप से रेखांकित किया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि निर्वाचन आयोग निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के लिए जिम्मेदार है। उसकी निष्पक्षता पर लोकतंत्र की नींव टिकी हुई है। निर्वाचन आयुक्त का दायित्व देश के लोगों के प्रति है। निर्वाचन आयुक्त को देश के सबसे ताकतवर लोगों का सामना करना होता है। यदि उसने उनके सामने घुटने टेक दिए तो आयोग की साख का बट्ट। लगेगा और लोकतांत्रिक मूल्य कमजोर हो जाएंगे और अंतत: इस प्रमुख संस्था पर लोगों का विश्वास कम होगा। निर्वाचन आयुक्त के लिए संविधान सर्वप्रमुख है। उसे सही और गलत का चयन करना है और उसी के हिसाब से कार्रवाई करनी है। संविधान के निर्माताओं ने यह अपेक्षा की थी कि संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत संसद निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्तियों में कार्यपालिका को सर्वाधिकार नहीं देगी। राजनीति का अपराधीकरण अपने चरम पर है। चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। मीडिया की भूमिका भी निष्पक्ष नहीं रही है। ऐसे में निर्वाचन आयुक्तों का दायित्व बढ़ जाता है।
विधेयक को सशक्त और कारगर बनाने के लिए सुझाव
निर्वाचन आयुक्तों का कार्यकाल छह साल का होता है। नए विधेयक में भी इसमें काई बदलाव नहीं किया गया है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसरों की सेवानिवृत्ति की उम्र 60 वर्ष है। यदि अवकाश प्राप्ति की उम्र से एक साल पूर्व यानी 59 साल की उम्र में उन्हें निर्वाचन आयुक्त का पद सौंपा जाए तो बेहतर होगा। इससे उन्हें लोक सभा तथा देश की विभिन्न विधान सभाओं का चुनाव सम्पन्न कराने के लिए ज्यादा समय मिलेगा। अधिक अनुभव से वह बेहतर काम कर सकेंगे। देश के 28 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में भी राज्य निर्वाचन आयोग विद्यमान हैं। इनमें मुख्य निर्वाचन अधिकारी कार्यरत हैं। इनके तजुर्बे का उपयोग देश के निर्वाचन आयोग में लिया जा सकता है। राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के रूप में काम कर चुके अफसरों के सचिव स्तर तक पहुंचने पर उन्हें निर्वाचन आयुक्त का पद दिया जाए तो इससे आयोग के कामकाज को बेहतर करने में मदद मिलेगी। राज्य के निर्वाचन अधिकारी के तौर पर उनका अनुभव पूरे देश के काम आएगा। निर्वाचन आयुक्तों का मौजूदा दर्जा बरकरार रखने की जरूरत है। इस समय उनका ओहदा सुप्रीम कोर्ट के जज के समकक्ष है। इसे कमतर करने से सिर्फ निर्वाचन आयुक्त की ही नहीं बल्कि निर्वाचन आयोग की प्रतिष्ठा प्रभावित होगी।
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