लेखक: विवेक वार्ष्णे
चुनावी चंदा या इलैक्ट्रोरल बांड पर दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला राजनीतिक दलों और औद्योगिक घरानों के बीच के गठजोड़ से पर्दा उठाने का एक साहसिक प्रयास है। चंदा एकत्र करने में पारदर्शिता के अभाव के चलते सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने छह साल पुरानी चुनावी चंदे की योजना को असंवैधानिक करार दिया। संविधान पीठ के सभी पांच सदस्यों की एकमत से राय थी कि मतदाता को यह जानने का अधिकार है कि राजनीतिक दलों को कौन चंदा देता है। क्या चंदा देने वाले औद्योगिक और व्यावसायिक घराने राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में मोटी रकम देकर आर्थिक लाभ उठाते हैं। चंदे के बदले कहीं बड़े-बड़े ठेके तो हासिल नहीं करते या सरकार की नीतियों को अपने पक्ष में मोडऩे का प्रयास तो नहीं करते। यदि ऐसा है तो भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर पैसा हावी हो जाएगा और जनसामान्य की भागदारी सिर्फ मतदान करने तक सीमित रह जाएगी। इन्हीं सब सवालों के सुप्रीम कोर्ट ने बिंदुवार विस्तृत जवाब दिए।
क्या है चुनावी चंदे पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
15 फरवरी 2024 को दिए गए एक अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की चुनावी बांड योजना को निरस्त कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा कि छह साल पुरानी चुनावी बांड योजना में पारदर्शिता का अभाव है। राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले दान-दाताओं के नाम गोपनीय रखने का प्रावधान संविधान में दिए गए सूचना के अधिकार का खुला उल्लंघन है। मतदाता को यह जानने का अधिकार है कि राजनीतिक दलों को आर्थिक सहायता कहां से मिलती है। चुनावी बांड के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून, आयकर अधिनियम, कंपनी अधिनियम आदि में किए गए संशोधनों को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया। संविधान पीठ ने इस योजना के लिए अधिकृत वित्तीय संस्थान भारतीय स्टेट बैंक को 12 अप्रैल, 2019 से निर्णय की तिथि तक खरीदे गए चुनावी बांड का विस्तृत ब्यौरा छह मार्च 2024 तक निर्वाचन आयोग को सौंपने का भी निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निर्वाचन आयोग 13 मार्च 2024 तक अपनी वेबसाइट पर छह वर्ष पुरानी योजना में दान देने वालों के नामों की जानकारी निर्वाचन आयोग दे।
संविधान पीठ के पांच न्यायाधीशों का सर्वसम्मति से दिया गया निर्णय
संविधान पीठ ने 232 पृष्ठों के अपने दो अलग-अलग, लेकिन सर्वसम्मत फैसलों में कहा कि एसबीआई को राजनीतिक दलों द्वारा भुगतान कराए गए सभी चुनावी बांड का ब्यौरा देना होगा। इस ब्यौरे में यह भी शामिल होना चाहिए कि किस तारीख को यह बांड भुनाया गया और इसकी राशि कितनी थी। साथ ही पूरा विवरण छह मार्च 2024 तक निर्वाचन आयोग के समक्ष पेश किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआई को निर्देश दिया कि वह तत्काल प्रभाव से नए चुनावी बांड जारी करना बंद कर दे। जो बांड अभी तक भुनाए नहीं गए हैं, उनकी धनराशि रिफंड करे।
संविधान पीठ की ओर से सीजेआई धनंजय चंद्रचूड ने निर्णय लिखा। इसमें कहा गया कि यह योजना संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत बोलने तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करती है। चुनावी बांड योजना के प्रावधान एसे हैं कि वे चुनावी बांड के माध्यम से योगदान को गुमनाम बनाते हैं तथा मतदाता के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करते हैं, साथ ही अनुच्छेद 19(1)(ए) का भी उल्लंघन करते हैं।
कॉरपोरेट को असीमित चंदे का अधिकार देना खतरे की घंटी
सुप्रीम कोर्ट का मत है कि कॉरपोरेट को असीमित चंदा देना का अधिकार देना लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। यह असंतुलन पैदा करता है। अपने मुनाफे का एक निश्चित प्रतिशत हिस्सा चंदे में देने का पूर्व में प्रावधान था जिसे असीमित कर दिया। उन औद्योगिक इकाइयों को भी चंदा देने के लिए अधिकृत कर दिया जो घाटे में चल रही हैं। घाटे में जा रही कंपनी सिर्फ अपने लाभ के लिए ही राजनीतिक दल को चंदा देगी।
संविधान पीठ ने कहा कि इसमें किसी तरह का संदेह नहीं होना चाहिए कि कॉरपोरेट हाउस अपने हित को ध्यान में रखकर राजनीतिक दल को चंदा देते हैं। चंदे के बदले वह अपने कारोबार में फायदा उठाते हैं। संविधान पीठ ने कहा कि बिना धन के चुनाव नहीं लड़ा जा सकता। लेकिन कॉरपोरेट को असीमित मात्रा में चंदा देने का अधिकार का मतलब है कि वह नीतियों को अपने पक्ष में प्रभावित करे। निजी तौर पर चंदे की 20 हजार रुपए की सीमा तय करने की पीछे यह मकसद था कि व्यक्ति किसी राजनीतिक दल की नीतियों को प्रभावित न करे।
संविधान पीठ केन्द्र सरकार की इस दलील से सहमत नहीं थी कि चंदा प्राप्त करने वाला एक राजनीतिक दल चंदा देने वालों की पहचान नहीं जानता है, क्योंकि न तो बांड पर उनका नाम होगा और न ही बैंक इसके विवरण का खुलासा करेगा।
जस्टिस चंद्रचूड ने अपने फैसले में कहा कि चुनावी बांड के माध्यम से दिए गए चंदे के आंकड़ों के अनुसार, 94 प्रतिशत चंदे एक करोड़ रुपए के मूल्यवर्ग में दिए गए। चुनावी बांड आर्थिक रूप से साधन संपन्न दानदाताओं को जनता के सामने चयनात्मक गुमनामी प्रदान करते हैं, न कि राजनीतिक दल के सामने। हमारी राय है कि किसी मतदाता को वोट देने की अपनी स्वतंत्रता का प्रभावी ढंग से उपयोग करने के लिए किसी राजनीतिक दल को मिलने वाले वित्तपोषण के बारे में जानकारी आवश्यक है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान निर्वाचक और निर्वाचित पर ध्यान केन्द्रित करके राजनीतिक समानता की गारंटी देता है। हालांकि, संवैधानिक गारंटी के बावजूद राजनीतिक असमानता बनी हुई है। आर्थिक असमानता के कारण राजनीतिक निर्णयों को प्रभावित करने की व्यक्तियों की क्षमता में अंतर असमानता में योगदान देने वाले कारकों में से एक है। राजनीतिक रूप से बराबरी वाले समाज में, नागरिकों को राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए एक सी आवाज मिलनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम पहले ही धन और राजनीति के घनिष्ठ संबंध को स्पष्ट कर चुके हैं, जहां हमने चुनावी परिणामों पर धन के प्रभाव की व्याख्या की है। हालांकि, चुनावी राजनीति पर धन का प्रभाव चुनावी परिणामों पर इसके प्रभाव तक सीमित नहीं है।
निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही लोकतंत्र का मूलमंत्र
चुनावी बांड को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया कि वंचित वर्ग की उपेक्षा से लोकतंत्र कब तक कायम रह पाएगा। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर यदि पैसा हावी रहा तो लोकतंत्र पर भी सवाल खड़े हो जाएंगे।
राजनीतिक वित्तपोषण की चुनावी बांड व्यवस्था को असंवैधानिक करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि लोकतंत्र चुनावों के साथ शुरू और समाप्त नहीं होता। सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए चुनाव प्रक्रिया की शुचिता महत्वपूर्ण है। भारत में चुनावी प्रक्रिया की शुचिता पर धन के हानिकारक प्रभाव पर सुप्रीम कोर्ट की हमेशा से पैनी नजर रही है। संविधान की प्रस्तावना में भी भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में वर्णित किया गया है। एक एेसा लोकतंत्र जिसमें नागरिकों को जाति और वर्ग से परे राजनीतिक समानता की गारंटी दी जाती है और जहां प्रत्येक वोट का मूल्य समान है। लोकतंत्र की शुरुआत और अंत चुनाव से नहीं होती।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि लोकतंत्र कायम रहता है क्योंकि जन प्रतिनिधि मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होते हैं जो उन्हें उनकी कार्रवाइयों तथा निष्क्रियताओं के लिए जवाबदेह ठहराते हैं। यदि चुने गए लोग जरूरतमंदों की मूलभूत सुविधाओं पर ध्यान नहीं देंगे तो क्या हम लोकतंत्र रहेंगे?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह याद रखना चाहिए कि भारत में कानूनी व्यवस्था अभियान फंडिंग और चुनावी फंडिंग के बीच अंतर नहीं करती है। यह आर्थिक असमानता और राजनीतिक असमानता तथा भारत में पार्टी वित्तपोषण को विनियमित करने वाली कानूनी व्यवस्था के बीच संबंध के आलोक में है कि एक जागृत मतदाता के लिए राजनीतिक वित्तपोषण पर जानकारी की अनिवार्यता का विश्लेषण किया जाना चाहिए। पैसे और राजनीति के बीच गहरे संबंध के कारण आर्थिक असमानता राजनीतिक जुड़ाव के विभिन्न स्तरों को जन्म देती है।
प्राथमिक स्तर पर, राजनीतिक चंदा दानदाताओं को साथ बैठने का अवसर देता है, यानी यह विधायकों और सांसदों तक पहुंच बढ़ाता है। यह पहुंच नीति-निर्माण पर प्रभाव में भी तब्दील हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति के पास राजनीतिक दलों को वित्तीय योगदान देने की अधिक क्षमता होती है और इस बात की वैध संभावना है कि किसी राजनीतिक दल को चंदा देने से धन और राजनीति के बीच घनिष्ठ संबंध के कारण ‘एक हाथ ले, दूसरे हाथ दे’ वाली स्थिति आ जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजनीतिक चंदे के बारे में जानकारी मतदाता को यह आकलन करने में सक्षम बनाएगी कि नीति निर्माण और वित्तीय योगदान के बीच कोई संबंध है या नहीं। चंदा देने वालों और राजनीतिक दलों के बीच पारस्परिक सहयोग की व्यवस्था के तर्क को स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक दल को उसे मिलने वाले वित्तपोषण के विवरण की जानकारी हो।
आरबीआई और निर्वाचन आयोग ने चुनावी बांड योजना पर जताया था ऐतराज
भारतीय रिजर्व बैंक(आरबीआई) और निर्वाचन आयोग ने चुनावी बांड योजना के मूर्तरूप लेने से पहले ही इस पर अपनी आपत्ति दर्ज की थी। आरबीआई का मत था कि गुमनाम दान-दाताओं से धन-शोधन का खतरा बढ़ जाएगा। यह धन-शोधन निवारण अधिनियम, 2002 के प्रावधानों के विपरीत होगा। फर्जी कंपनियों के जरिए बांड खरीदे जा सकेंगे। आरबीआई का यह भी कहना था कि चेक, डिमांड ड्राफ्ट, इलैक्ट्रोनिक तथा डिजिटल माध्यम से चंदा देने की वर्तमान योजना सही और कारगर है। इसमें बांड का समावेश नहीं किया जाए।
निर्वाचन आयोग ने भी बांड के जरिए काले धन के इस्तेमाल के प्रति सरकार को आगाह किया था। निर्वाचन आयोग का मत था कि कॉरपोरेट को असीमित फंडिंग का अधिकार देने से फर्जी कंपनियां उत्पन्न हो जाएंगी और पारदर्शिता खत्म हो जाएगी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आरबीआई और निर्वाचन आयोग की आशंकाएं सही साबित हुई।
References:
- Rustam Cavasjee Cooper Vs Union of India(1970) 1 SCC 248
- R.K. Garg Vs Union of India(1981) 4 SCC 675
- Premium Granites Vs State of Tamilnadu(1994) 2 SCC 691
- Democracy’s guardian angel by S Y Quraishi, The Indian Express, February 16, 2024
- A vital Verdict, Editorial, The Indian Express, February 16, 2024
- Re-energising RTI by Yashovardhan Azad, The Indian Express, February 16, 2024
- Peerless General Finance and Investment Co. Vs RBI(1992) 2 SCC 343
- BALCO Employees Union Vs Union of India(2002) 2 SCC 333
- DG of Foreign Trade Vs Kanak Export(2016) 2 SCC 226
- Day After, Way Ahead, Editorial, The Indian Express, February 17, 2024
- A Thousand Steps Back by Hitesh Jain, The Indian Express, February 17, 2024
- The Watchful Guardian by Jagdeep S Chhokar, The Indian Express, February 17, 2024
- Subash Chandra Vs Delhi Subordinate Service Selection Board(2009 15 SCC
- Dharam Dutt Vs Union of India, AIR 2004 SC 1295
- Ramlila Maidan Incident, In Re,(2012) 5 SCC 1
- How to Fix India’s Election Funding by Chakshu Roy, The Times of India, February 17, 2024
- Elections Need Money But Also Protection From Money By Nandita Sen Gupta, The Times of India, February 20, 2024
- A long institutional road by Pratap Bhanu Mehta, The Indian Express, February 23, 2024
- How to end game of money in elections by Anjana Menon, Nabharat Times, February 19, 2024
- Public Right to Know by Vineet Narain, Rashtriya Sahara, February 19, 2024
- State of Bombay Vs FN Balsara 1951 SCR 682
- Ameerunissa Begum Vs Mahboob Begum (1952) 2 SCC 697
- David P Baron, Electoral Competition with informed and uninformed voters, American Political Science Review, Vol.88, No, 1 March 1994
- Michel A. Collins, Navigating Fiscal Constraints in Costs of Democracy: Political Finance in India(Edited by Devesh Kapur and Milan Vaishnav) OUP 2018
- Neelanjal Sircar, Money in Elections: the Role of Personal Wealth in Election Outcomes in Costs of Democracy: Political Finance in India(Edited by Devesh Kapur and Milan Vaishnav) OUP 2018
- Instead of Electoral bonds by Ashok Lavasa, The Indian Express, February 27, 2024
- Of elections and bonds by Tavleen Singh, The Indian Express, March 17, 2024
- The Court’s trajectory by Christophe Jaffrelot, The Indian Express, March 14, 2024
- Who Paid Whom, Editorial, The Indian Express, March 12, 2024