राज्य की विधान सभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी नहीं देने पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के अधिकारों पर अहम फैसला दिया है। राज्यपाल लम्बे समय तक विधेयकों को पेंडिंग नहीं रख सकते। संघीय ढांचे में राज्यपाल के अधिकार बहुत सीमित हैं। राज्यपाल उन्हीं विषयों पर अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं जहां उन्हें संविधान के तहत अधिकार हासिल हैं।
पंजाब, केरल और तमिलनाडु सरकार ने विधान सभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी नहीं देने पर अपने-अपने प्रदेश के राज्यपाल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। पंजाब सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विवाद का निपटारा कर दिया है। तमिलनाडु की विधान सभा ने राज्यपाल द्वारा लौटाए गए विधेयकों को दोबारा विधान सभा के पटल पर रखा। विधान सभा ने इन सभी विधेयकों पर एक बार फिर अपनी मुहर लगा दी। तमिलनाडु के राज्यपाल ने दोबारा पारित बिलों पर अपनी मंजूरी प्रदान नहीं की है। केरल के राज्यपाल ने सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकार की याचिका पर नोटिस जारी होने के बाद एक विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर दी और बाकी सात विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए सुरक्षित रख लिया।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि संसदीय लोकतंत्र में सत्ता निर्वाचित सदस्यों के हाथ में होती है। केन्द्र में संसद और राज्य में विधान सभा के चुने हुए सदस्य जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। कैबिनेट के रूप में सरकार अपना कामकाज करती है जिस पर विधायिका निगरानी रखती है। राष्ट्रपति देश के हर प्रदेश में राज्यपाल की नियुक्ति करते हैं। राज्यपाल या गर्वनर सिर्फ नाममात्र के राज्य प्रमुख होते हैं। संविधान में साफतौर पर कहा गया है कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करेंगे। दूसरे शब्दों में, राज्यपाल राज्य की मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य हैं। हालांकि कुछ विषयों पर राज्यपाल को विशेषाधिकार हासिल हैं। वह उस पर अपने विवेकाधिकार का प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन शासन का अधिकार निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को ही प्राप्त है।[/vc_column_text]