आपराधिक मामलों के अभियुक्तों के मकान पर बुलडोजर चलाने की कार्रवाई ने देश के कानून के सामने नई चुनौती पेश की है। कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बिना किसी की छत को कैसे ढहाया जा सकता है? अभियुक्त तो दूर यदि किसी को मुकदमे के बाद दोषी भी पाया गया है, तो क्या उसके मकान को ध्वस्त किया जा सकता है। पिछले कई वर्षों से बुलडोजर चलाने की गैर-कानूनी कार्रवाई ने कानून पर यकीन करने वाले लोगों को हैरान-परेशान किया है। इस तरह की हरकत से लगता है कि क्या हम वाकई एक सभ्य समाज में रह रहे हैं? सभ्य समाज की सबसे पहली शर्त है कि कानूनी प्रक्रिया का पालन करके ही किसी को सजा दी जा सकती है। किसी व्यक्ति के अपराध में शामिल होने के संदेह मात्र से उसके रिहायश को ढहा देना सिर्फ उस शख्स के खिलाफ अन्याय नहीं है, यह कृत्य परोक्ष रूप से भारतीय संविधान पर बुलडोजर चलाने के समान है। कई साल के इंतजार के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक सख्त फैसले में तेजी से आगे बढ़ते बुलडोजर के पहियों पर लगाम लगाई है।
कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बिना बुलडोजर चलाना अराजकता की निशानी
सुप्रीम कोर्ट ने कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बिना बुलडोजर से मकान ढहाने की सरकार की कार्रवाई को अराजकता की निशानी कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने अनधिकृत निर्माण को गिराने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए और बहुत सख्त लहजे में कहा कि यदि देश की सर्वोच्च अदालत की गाइडलाइंस का पालन नहीं किया गया तो अचल संपत्ति ढहाने के जिम्मेदार सरकारी अफसर पर मुकदमा चलाया जाएगा। उसे अदालत की अवमानना का सामना करना पड़ेगा और सरकारी खजाने से नहीं बल्कि उसे अपनी जेब से उस इमारत का निर्माण करना होगा जो अवैध रूप से ढहाई गई है।
कानून के बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ है बुलडोजर का चलन – कुछ बुनियादी सवाल
जस्टिस बीआर गवई और केवी विश्वनाथन की बेंच ने बुलडोजर के लगातार बढ़ते चलन पर गहरे बुनियादी सवाल उठाए। बेंच ने कहा कि किसी आपराधिक वारदात में शामिल होने की आशंका या एफआईआर में नाम आते ही आरोपी के मकान-दुकान को ढहाना कानून के बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया कि सरकार या सरकारी अधिकारी को कब से यह अधिकार मिल गया कि वह आपराधिक मुकदमे के अभियुक्त को दोषी ठहराए। संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकार निर्धारित हैं। न्यायपालिका भी निष्पक्ष ट्रायल के बाद आपराधिक वारदातों में कथित रूप से शामिल व्यक्ति को दोषी ठहराती है। उसकी सजा की अवधि उसके द्वारा किए गए जुर्म के अनुपात में ही निर्धारित की जाती है। मौत की सजा पाए शख्स को तब तक फांसी के तख्ते पर नहीं लटकाया जाता, जब तक हाई कोर्ट मृत्युदंड की पुष्टि न करे दे। भारतीय न्याय शास्त्र में अभियुक्त या आरोपी की अचल सम्पत्ति को ढहाने का प्रावधान नहीं है। अनधिकृत निर्माण गिराने के लिए हर राज्य के स्थानीय कानून हैं। इन नगर निकाय नियमों या गांव-देहात में पंचायत के नियमों के आधार पर ही अवैध निर्माण को ढहाया जा सकता है। अदालत द्वारा अपराधी ठहराए गए शख्स की अचल सम्पत्ति पर हाथ नहीं डाला जा सकता तो फिर आरोपी के घर पर बुलडोजर चलाने का अधिकार सरकार को किसने दिया?
सामूहिक सजा की इजाजत नहीं देता भारतीय संविधान
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आश्रय का अधिकार (राइट टू शेल्टर) संविधान में नागरिकों को दिया गया बुनियादी अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले मौलिक अधिकार को बुलडोजर से रौंदा नहीं जा सकता। परिवार के एक सदस्य के अपराध में शामिल होने का मतलब यह नहीं कि उसके सभी सदस्यों को मकान गिराकर सजा दी जाए। सामूहिक सजा का प्रावधान भारतीय न्याय शास्त्र की मूल अवधारणा के ठीक विपरीत है। छत गंवा देने से परिवार के बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग सडक़ पर आ जाते हैं। उनकी दुर्दशा को देखने के दृश्य विचलित करने वाला होता है।
नोटिस दिए बिना मकान को ढहाया नहीं जा सकता
सुप्रीम कोर्ट ने अनधिकृत निर्माण को ढहाने के लिए गाइडलाइंस जारी की हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अवैध निर्माण गिराने के लिए 15 दिन का नोटिस देना अनिवार्य है। इसके बाद भी व्यक्ति को कानून में दिए गए अधिकार के तहत अदालत जाने की अनुमति दी गई है। यदि कोई व्यक्ति नोटिस या ध्वस्तीकरण के आदेश को चुनौती नहीं देना चाहता, उसे भी मकान खाली करने के लिए समय दिया जाए।
प्रभावित लोगों को जवाब देने के लिए 15 दिन का वक्त दिया जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि प्राधिकारी उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना नागरिकों की संपत्ति को ध्वस्त करके उन्हें दंडित नहीं कर सकते। कोर्ट ने एसी ज्यादतियों को मनमाना करार दिया और कहा कि इससे सख्ती से निपटे जाने की जरूरत है।
सुप्रीम कोर्ट ने एक इमारत को बुलडोजर से ध्वस्त करने और महिलाओं, बच्चों तथा वृद्ध व्यक्तियों को रातों-रात बेघर कर देने के दृश्य को भयावह करार दिया। बेंच ने कहा कि यदि प्राधिकारी न्यायाधीश की तरह काम करते हैं और किसी नागरिक पर इस आधार पर मकान ढहाने का दंड लगाते है कि वह एक आरोपी है तो यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन है। जब प्राधिकारी नैसर्गिक न्याय के मूल सिद्धांतों का पालन करने में विफल रहते हैं और वाजिब प्रक्रिया के सिद्धांत का पालन किए बिना काम करते हैं, तो बुलडोजर द्वारा इमारत को ध्वस्त करने का भयावह दृश्य एक अराजक स्थिति की याद दिलाता है, जहां ताकतवर ही जीतेगा।
अदालत ने कहा कि इस तरह की मनमानी कार्रवाइयों के लिए संविधान में कोई जगह नहीं है, जो कानून के शासन की बुनियाद पर टिका हुआ है। कोर्ट ने कई निर्देश जारी करते हुए कहा कि उसके निर्देश उन मामलों में लागू नहीं होंगे जहां सडक़, गली, फुटपाथ, रेल पटरी या किसी नदी या जलाशय जैसे किसी सार्वजनिक स्थल पर कोई अनधिकृत निर्माण है तथा उन मामलों में भी लागू नहीं होंगे जहां अदालत ने ध्वस्तीकरण का आदेश दिया है। अदालत ने कहा कि कारण बताआे नोटिस जारी किए बिना संपत्ति ढहाने की कोई भी कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। इस नोटिस का जवाब स्थानीय नगर निकाय कानून के अनुरूप निर्धारित अवधि में देना होगा या फिर नोटिस तामील होने के 15 दिन के भीतर देना होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि संवैधानिक लोकाचार और मूल्य शक्ति के इस तरह के दुरुपयोग की अनुमति नहीं देते और इस तरह के दुस्साहस को अदालत द्वारा बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। प्राधिकारी न्यायाधीश बनकर यह निर्णय नहीं ले सकते कि आरोपी व्यक्ति दोषी है और इसलिए उसकी आवासीय-व्यावसायिक संपत्तियों को ध्वस्त करके उसे दंडित किया जाए। सरकारी अधिकारी का ऐसा कृत्य उसकी सीमाओं का उल्लंघन होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य के अधिकारियों की ओर से शक्तियों के मनमाने इस्तेमाल के संबंध में नागरिकों के मन में व्याप्त आशंकाओं को दूर करने के लिए हम संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए कुछ निर्देश जारी करना आवश्यक समझते हैं। अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को उसके समक्ष लंबित किसी भी मामले में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक कोई भी डिक्री या आदेश पारित करने का अधिकार देता है। अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा कि ढहाने का आदेश पारित होने के बाद भी प्रभावित पक्षों को कुछ समय दिया जाना चाहिए ताकि वे उपयुक्त मंच पर आदेश को चुनौती दे सकें।
कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में भी जहां लोग ध्वस्तीकरण आदेश का विरोध नहीं करना चाहते हैं उन्हें घर खाली करने और अन्य व्यवस्थाएं करने के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए। यह अच्छा नहीं लगता कि महिलाओं, बच्चों और बीमार व्यक्तियों को रातों-रात बेघर कर दिया जाए। यदि अधिकारी कुछ समय के लिए रुक जाएंगे तो आसमान नहीं टूट पड़ेगा।
अदालत ने निर्देश दिया कि संपत्ति के मालिक को पंजीकृत डाक से नोटिस भेजा जाए और इसके अतिरिक्त, नोटिस को संपत्ति की बाहरी दीवार पर भी चिपकाया जाए। नोटिस प्राप्त होने की तिथि से 15 दिन की समयसीमा प्रारंभ होगी। अदालत ने निर्देश दिया कि जैसे ही कारण बताआे नोटिस की विधिवत तामील हो जाए, इसकी सूचना संबंधित कलेक्टर या जिलाधिकारी के कार्यालय को डिजिटल रूप से ई-मेल द्वारा भेज दी जाए। कलेक्टर या जिलाधिकारी एक नोडल अधिकारी नियुक्त करेंगे और एक ई-मेल पता भी प्रदान करेंगे तथा भवन नियमन और ध्वस्तीकरण के प्रभारी सभी नगर निकाय और अन्य प्राधिकारियों को इसकी सूचना देंगे। नोटिस में अनधिकृत निर्माण की प्रकृति, विशिष्ट उल्लंघन और ध्वस्तीकरण के आधार के बारे में विस्तृत जानकारी दी जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद बुलडोजर का अवैध इस्तेमाल जारी
सुप्रीम के सख्त आदेश से बुलडोजर का बेजा इस्तेमाल धीमा तो पड़ा है लेकिन पूरी तरह रुका नहीं है। कई राज्य सरकारें अभी भी आरोपियों की इमारतों को ढहाने में संकोच नहीं कर रही हैं। निशाने पर ज्यादातर अल्संख्यक समुदाय के लोग होते हैं। सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में यह लाया गया है कि अदालत की गाइडलाइंस का पालन नहीं किया जा रहा है लिहाजा बुलडोजर चलाने का आदेश देने वाले सरकारी अफसरों पर अवमानना का मुकदमा चलाया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कई मामलों के याचियों को संबंधित हाई कोर्ट जाने की सलाह दी है। कुछ मामलों सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी अफसरों को नोटिस जारी किए हैं और उनसे जवाब तलब किया है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन नहीं करने वाले सरकारी अफसरों के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई से ही यह गैर-कानूनी काम रुक सकता है। यह देखा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णय जमीनी स्तर पर लागू नहीं हो पाते। सरकारी अधिकारी राजनीतिक नेताओं के प्रभाव में रहते हैं और कानून की अनदेखी करते हैं। यदि सुप्रीम कोर्ट ने एक-दो मामलों सख्ती दिखाए और मनमानी करने वाले अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की तो हो सकता है कि उसका दूरगामी असर पड़े और समाज का कमजोर वर्ग अन्याय का शिकार होने से बच जाए।