एक देश, एक चुनाव: क्रियान्वयन आसान नहीं होगा 

 देश में लोक सभा और विधान सभा के चुनाव एकसाथ कराने के प्रस्ताव को केन्द्रीय कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। केन्द्र सरकार ने कहा है कि संसद शीतकालीन सत्र में विधेयक लाएगी। एक राष्ट्र, एक चुनाव का नारा जितना आकर्षक लगता है, इसे लागू करना उतना ही मुश्किल है। सभी 28 राज्यों और कुछ केन्द्र शासित प्रदेशों के विधान सभा चुनाव अगले लोक सभा के साथ कराने की केन्द्र की मंशा व्यवहारिक नहीं दिखाई देती। राज्य विधान सभा का पांच वर्ष का कार्यकाल कुछ महीने के लिए तो घटाया जा सकता है लेकिन निर्वाचित सरकार के सत्ता संभालने के बाद दो-तीन वर्ष बाद ही उसे दोबारा चुनाव में धकेलने का संविधान संशोधन संवैधानिक मूल्यों पर खरा उतरेगा, इस पर संदेह है। क्षेत्रीय दल निश्चित रूप से इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे। 

राज्यों का अपना अस्तित्व 

 एक राष्ट्र, एक चुनाव की परिकल्पना भारत जैसे विशाल देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की मूल भावना के ठीक विपरीत है। यह संवैधानिक मूल्यों से टकराव पैदा करती है। संविधान में साफतौर पर कहा गया है-इंडिया इज यूनियन ऑफ स्टेटस। भारत राज्यों का संघ है। राज्यों की सार्वभौमिकता को नकारा नहीं जा सकता। कोविंद समिति ने राज्य विधान सभा के पांच वर्ष के कार्यकाल में कटौती की अनुशंसा की है, लोक सभा की नहीं। क्यों न लोक सभा का कार्यकाल घटाकर उसे अन्य राज्यों की विधान सभा के चुनाव के साथ तारतम्य बैठाया जाए? सिर्फ केन्द्र सरकार और लोक सभा को ध्यान में रखकर चुनाव का समय तय करने की कवायद संघवाद पर सीधी चोट पहुंचाती है। 

  कोविंद समिति ने एक राष्ट्र, एक चुनाव की सिफारिश करके जितने सवालों का जवाब दिया है, उससे ज्यादा प्रश्नों को खड़ा कर दिया है। पांच साल में एक बार चुनाव होने से लोकतंत्र मजबूत होगा, क्या इस पर राजनीति शास्त्र के विद्वानों और विधि वेत्ताओं से राय ली गई। कोविंद समिति ने भारत के चार पूर्व मुख्य न्यायाधीशों और हाई कोर्ट के कई अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीशों से विचार-विमर्श किया। यह जरूर है कि इस सवाल का सर्वमान्य जवाब नहीं मिलता, लेकिन समिति का काम ही यही होता है कि देश ही नहीं दुनिया के किसी भी कोने से मिले उस विषय का विशेषज्ञ अपनी राय व्यक्त करना चाहे तो उस पर विचार किया जाए और इस विषय पर हुई स्टडी के आधार निष्कर्ष निकाला जाए। पिछले तीन-चार दशकों में कई क्षेत्रीय दल उभरकर सामने आए हैं और इन राजनीतिक दलों ने कई राज्यों में मजबूत सरकारें बनाई हैं। इससे लोकतंत्र की जड़े मजबूत हुई हैं। क्षेत्रीय दल एक देश, एक चुनाव का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि लोक सभा और विधान सभा के चुनाव एकसाथ कराने से राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो जाएंगे और इसका लाभ बड़े राजनीतिक दलों को होगा। 

मतदाता की राय 

 यदि हम मौजूदा माहौल की बात करें तो मतदाता को पांच साल में दो या तीन बार मतदान स्थल तक जाने में कोई गुरेज नहीं है। सरकार ने एक देश, एक चुनाव का नारा देते समय एक बहुत ही अजीब तर्क पेश किया है कि मतदाता बार-बार वोट डालने से ऊब जाता है। कई वर्षों के लम्बे चुनाव कवरेज के दौरान मैंने एक भी मतदाता ऐसा नहीं पाया जो यह कहे कि वह बार-बार के मतदान से वह ऊब गया है। उलटे, मतदाता बार-बार के चुनाव से खुश रहता है। उसे लगता है कि उसके हाथ में भी पॉवर है। चुनाव के दौरान उम्मीदवार उसके पास आता है तो उससे सवाल-जवाब करता है। हर बार के चुनाव में मतदान का बढ़ता प्रतिशत इस बात का सबूत है कि लोक सभा, विधान सभा, नगर निगम, नगर पालिका, पंचायत के चुनाव में भाग लेने से मतदाता कतराता नहीं है। हो सकता है काम की व्यस्तता, बीमारी, मतदाता सूची में नाम न होने, नौकरी-पेशे के कारण मतदान स्थल से दूर होनेे के कारण वह वोट नहीं कर पाता हो लेकिन वह मतदान से ऊबता नहीं है। 

 

 कई विधान सभाओं के चुनाव हो सकते हैं एकसाथ 

 दरअसल, बार-बार के चुनाव से नहीं बल्कि इसके बेतरतीब प्रबंधन से समस्या खड़ी हुई है। कुछ राज्य विधान सभा के चुनाव निश्चित रूप से लोक सभा के चुनाव के साथ कराए जा सकते हैं। यह कराए भी गए हैं। 18वीं लोक सभा के चुनाव के साथ ओडीशा, आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम विधान सभा के चुनाव भी हुए। जम्मू-कश्मीर विधान सभा के चुनाव भी लोक सभा के साथ कराए जा सकते थे। जम्मू-कश्मीर में लोक-सभा और विधान सभा का चुनाव एकसाथ नहीं कराने पर निर्वाचन आयोग ने कानून-व्यवस्था एक कारण बताया था जो तर्कपूर्ण नहीं है।  एकसाथ चुनाव होने से सुरक्षा एजेंसियों को अपनी तैनाती के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। विधान सभा चुनाव होने से उन्हें कुछ माह बाद ही दोबारा उसी जगह तैनात किया गया है। सितंबर-अक्टूबर 2024 में हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधान सभा के चुनाव हुए। इन दोनों विधान सभाओं के साथ महाराष्ट्र और झारखंड विधान सभा के चुनाव कराने की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यदि चार राज्यों के विधान सभा चुनाव एकसाथ होते तो एक बार की आचार संहिता में यह निपट जाते। इसलिए आचार संहिता का हवाला देकर विकास रुकने का दावा बहुत खोखला है। इन दोनों राज्य विधान सभा चुनाव के दौरान भी केन्द्र सरकार लगातार नई जनकल्याणकारी योजनाओं की घोषणा कर रही है। पहले से घोषित सभी पुरानी नीतियों के अनुसार प्रशासनिक कामकाज आगे बढ़ता रहता है। विकास धीमा हो जाने या थम जाने का तर्क थोथला नजर आता है। यदि केन्द्र की सत्ताधारी दल भाजपा चाहती तो हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों विधान सभाओं को तयशुदा समय से पहले भंग करके लोक सभा के साथ चुनाव करा सकती थी। हरियाणा में उसकी सरकार है और महाराष्ट्र में वह सरकार का अहम हिस्सा है। इससे वह एक साहसी उदाहरण पेश करती कि उसने अपने दो राज्यों की सरकार का कार्यकाल घटाया जिससे अन्य दलों की सरकारें भी अपने निर्धारित कार्यकाल में कटौती करें। दरअसल, चुनाव से मतदाता नहीं बल्कि नेता घबराते हैं। चुनाव आने से उनकी जवाबदेही तय होती है। मतदाता को चुनाव से नई ताकत मिलती है। 

 चुनाव का प्रबंधन इस तरह होना चाहिए कि कई विधान सभाओं के चुनाव एकसाथ कराए जा सके। निर्वाचन आयोग को यह अधिकार है कि छह महीने के अंतराल में होने वाले चुनाव एकसाथ करा सकता है। दो साल पहले हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनाव एकसाथ होने थे। लेकिन अलग-अलग कराए गए। इस साल हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के साथ महाराष्ट्र और झारखंड विधान सभा के चुनाव भी कराए जा सकते थे। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने जल्द चुनाव के लिए विधान सभा भंग करने की पेशकश की है ताकि फरवरी 2025 में निर्धारित अवधि से पहले चुनाव हो सके। देखना होगा कि दिल्ली के चुनाव महाराष्ट्र और झारखंड के साथ हो पाते हैं या नहीं। 

  आजादी के बाद 1952 से लेकर 1967 तक लोक सभा और विधान सभा के चुनाव एकसाथ हुए। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि इस दौरान लगभग सभी विधान सभाओं ने अपना कार्यकाल पूरा किया और लोक सभा ने भी। 1967 के लोक सभा चुनाव के साथ राज्यों की विधान सभा के चुनाव भी हुए लेकिन कई राज्यों में किसी भी एक राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिला। 1967 के चुनाव के बाद कांग्रेस काफी कमजोर हो गई। कई राज्यों में मिलीजुली सरकारें बनीं और वह भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। बहुमत खोने पर सत्ताधारी दल ने विधान सभा भंग करने की सिफारिश की और इस वजह से लोक सभा के साथ-साथ विधान सभा चुनाव कराने का चक्र टूट गया। 1971 में लोक सभा के चुनाव निर्धारित अवधि से 15 माह पहले करा लिए गए थे। लेकिन 1999 के बाद से लोक सभा और राज्यों की विधान सभाओं ने अपने पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किया है। सरकारों की स्थिरता से लोकतंत्र मजबूत हुआ है। एकसाथ चुनाव से कहीं अधिक जरूरी है स्थिर सरकार। 

 


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Vivek Varshney

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