अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के अल्पसंख्यक स्वरूप को लेकर लम्बे समय से चली आ रही कानूनी जंग अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने 4:3 के बहुमत से साफतौर पर कहा कि संसद द्वारा पारित कानून का मतलब यह नहीं है कि उस शिक्षण संस्थान अपने अल्पसंख्यक दर्जे के अधिकार का सरेंडर कर दिया हो। यदि शिक्षण संस्थान बनाने में भारत के अल्पसंख्यकों ने अहम भूमिका निभाई और उसका संचालन किया तो उसे उसके अल्पसंख्यक चरित्र से वंचित नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 30 की वृहद व्याख्या की।
क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने ?
सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय(एएमयू) को अल्पसंख्यक संस्थान से वंचित करने वाले 1967 के अजीज बाशा केस को पलट दिया। लेकिन साथ ही एएमयू को अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान घोषित करने का मसला रेगूलर बेंच के हवाले कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक करार देने के लिए पैमाना निर्धारित किया और कहा कि एमएमयू इन मापदंडों पर खरा उतरता है तो उसे माइनरिटी यूनिवर्सिटी घोषित किया जाए।
चीफ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड, जस्टिस संजीव खन्ना, ज. सूर्यकांत, ज. जमशेद पारदीवाला, ज. दीपांकर दत्ता, ज. मनोज मिश्रा और ज. सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने 4:3 के बहुमत के फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 30 में भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने शिक्षण संस्थान का गठन करने और उनका संचालन करने का अधिकार है। यदि अल्पसंख्यक संस्थानों ने सामूहिक रूप से अपनी बिरादरी की शिक्षा के लिए संस्थान के गठन का प्रयास किया है और उसे मेंटेन भी किया है तो इस उसे इस आधार पर माइनरटी करेक्टर से वंचित नहीं किया जा सकता कि सरकार उस शिक्षण संस्थान को वित्तीय सहायता मुहैया कराती है।
कोई कानून या कार्यकारी कार्रवाई जो शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना या प्रशासन में धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव करती है, संविधान के अनुच्छेद 30(1) के विरुद्ध है। अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने के अधिकार से संबंधित है। अनुच्छेद 30(1) कहता है कि सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म या भाषा पर आधारित हों, अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार होगा। चीफ जस्टिस चंद्रचूड ने जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस जमशेद पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की आर से 118 पृष्ठ का फैसला लिखा। उन्होंने कहा कि 1967 के अजीज बाशा के फैसले में अपनाया गया यह दृष्टिकोण कि यदि कोई शैक्षणिक संस्थान किसी कानून के माध्यम से अपना वैधानिक चरित्र प्राप्त करता है तो वह अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित नहीं है, खारिज किया जाता है। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत सरकार मामले में फैसला दिया था कि एएमयू एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता।
बहुमत के फैसले में कहा गया कि इसके अतिरिक्त, भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यक जिसने कोई शैक्षणिक संस्थान स्थापित किया है, उसे प्रशासन में अधिक स्वायत्तता की गारंटी मिलती है। इसे प्रावधान से जुड़े विशेष अधिकार के तौर पर पढ़ा जाना चाहिए। सीजेआई चंद्रचूड ने कहा कि धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों को यह साबित करना होगा कि उन्होंने समुदाय के लिए शैक्षणिक संस्थान की स्थापना की है, जो अनुच्छेद 30(1) के प्रयोजनों के लिए अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 30(1) द्वारा गारंटीकृत अधिकार संविधान लागू होने से पहले स्थापित विश्वविद्यालयों पर लागू है। सीजेआई ने उन कारकों को रेखांकित किया जिनका उपयोग यह निर्धारित करने के लिए किया जाना चाहिए कि क्या किसी अल्पसंख्यक ने कोई शैक्षणिक संस्थान स्थापित किया है। उन्होंने लिखा कि विचार, उद्देश्य और कार्यान्वयन के संकेत संतुष्ट करने वाले होने चाहिए। किसी शैक्षणिक संस्थान की स्थापना का विचार अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित किसी व्यक्ति या समूह से उत्पन्न हुआ होना चाहिए तथा शैक्षणिक संस्थान मुख्य रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ के लिए स्थापित किया जाना चाहिए। इस विचार का क्रियान्वयन अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा उठाया गया एक अन्य महत्वपूर्ण कारक बताया गया। उन्होंने कहा कि शैक्षणिक संस्थान की प्रशासनिक व्यवस्था में- (1) शैक्षणिक संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र को स्पष्ट और पुष्ट किया जाना चाहिए; तथा (2) कि इसकी स्थापना अल्पसंख्यक समुदाय के हितों की रक्षा और संवर्धन के लिए की गई थी। चीफ जस्टिस ने कहा कि एएमयू अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है या नहीं, इस पर फैसला इस निर्णय में निर्धारित सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए।
सीजेआई ने न्यायिक रिकॉर्ड को नियमित पीठ के समक्ष प्रस्तुत करने को कहा ताकि अल्पसंख्यक दर्जे के मुद्दे पर निर्णय लेने के अलावा इलाहाबाद हाई कोर्ट के वर्ष 2006 के फैसले के खिलाफ अपीलों पर निर्णय लिया जा सके। जनवरी 2006 में हाई कोर्ट ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को रद्द कर दिया था जिसके तहत एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था। बहुमत के फैसले में 1981 में दो न्यायाधीशों की बेंच द्वारा दिया गया संदर्भ भी वैध माना गया, जिसमें 1967 के फैसले की कानूनी विश्वसनीयता पर सवाल उठाया गया था और मामले को सात न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया गया था।
तीन न्यायाधीशों का असहमति का निर्णय
सात न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ के तीन अन्य न्यायाधीशों- जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने अलग राय लिखी। जस्टिस कांत ने कहा कि 1967 के निर्णय पर पुनर्विचार के लिए 1981 में भेजा गया संदर्भ कानून की दृष्टि से गलत है और इसे खारिज कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने अपने अलग फैसले में कहा कि अंजुमन (1981 में) में दो न्यायाधीशों की बेंच द्वारा दिया गया संदर्भ और कुछ नहीं, बल्कि सीजेआई के मास्टर ऑफ रोस्टर होने के अधिकार को चुनौती देना तथा संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत प्राप्त विशेष शक्तियों का हनन है।
जस्टिस शर्मा ने 193 पृष्ठों के फैसले में कहा कि दो न्यायाधीशों की बेंच सीजेआई की बेंच का हिस्सा न होने की स्थिति में मामले को सीधे सात न्यायाधीशों की बेंच को संदर्भित नहीं कर सकती थी। सुप्रीम कोर्ट ने 12 फरवरी, 2019 को विवादास्पद मुद्दे को सात न्यायाधीशों की बेंच को सौंप दिया था। इससे पहले 1981 में भी इसी तरह का संदर्भ दिया गया था। इस शिक्षण संस्थान को 1981 में संसद द्वारा एएमयू (संशोधन) अधिनियम पारित किए जाने पर अपना अल्पसंख्यक दर्जा पुन: मिल गया था।
जस्टिस दीपांकर दत्ता ने एएमयू को अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान नहीं माना
अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान नहीं है, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपांकर दत्ता अपने असहमति के फैसले में यह बात कही। उन्होंने कहा कि यदि समय की कमी न होती तो वह अपनी असहमतिपूर्ण राय को बेहतर ढंग से व्यक्त कर सकते थे। उन्होंने आम सहमति बनाने के लिए सच्ची लोकतांत्रिक भावना में विचारों और मशविरे का आदान-प्रदान न करने की भी निंदा की। उन्होंने अपने फैसले में लिखा कि उद्देश्यपूर्ण और प्रभावी संवाद के लिए एक साझा मंच, जहां बेंच के सदस्य स्वतंत्र रूप से अपने विचार व्यक्त कर सकें; विचारों को साझा करने और विचारों का आदान-प्रदान करने का प्रयास; सर्वसम्मति बनाने के लिए सच्ची लोकतांत्रिक भावना के साथ विचारों का आदान-प्रदान- ये सभी बातें पीछे छूट गई हैं। उन्होंने इस मामले में फैसला सुरक्षित रखे जाने के बाद से ही न्यायाधीशों पर काम के अत्यधिक दबाव को रेखांकित किया। जस्टिस दत्ता ने कहा कि विभिन्न प्रकृति के न्यायिक और प्रशासनिक कार्यों ने भी उन पर बोझ बढ़ा दिया था और एसे समय में सभी सहकर्मियों की बैठक के लिए चीफ जस्टिस को अनुरोध भेजने के लिहाज से देर हो चुकी थी। उन्होंने कहा कि अफसोस की बात है कि सात न्यायाधीशों की इस बेंच में शामिल सभी सदस्यों की उपस्थिति में प्रतिद्वंद्वी तर्कों पर किसी भी व्यावहारिक और रचनात्मक चर्चा के बिना, केवल चार न्यायाधीशों की व्यक्तिगत राय ही तैयार की जा सकी और अवलोकन और अनुमोदन के लिए प्रसारित की जा सकी। विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे के विवादास्पद मुद्दे पर 88 पृष्ठों के एक अलग निर्णय में जस्टिस दत्ता ने कहा कि इस मामले में फैसला एक फरवरी, 2024 को सुरक्षित रखा गया था, जबकि सीजेआई चंद्रचूड की मसौदा राय 17 अक्टूबर, 2024 को उनके पास आई थी।
जस्टिस दत्ता ने अपने फैसले में एएमयू को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान घोषित नहीं किया। उन्होंने लिखा कि मुझे आश्चर्य हो रहा है कि अंजुमन-ए-रहमानिया मामले में दो न्यायाधीशों की बेंच यह अनुरोध कैसे कर सकती है कि मामले को कम से कम सात न्यायाधीशों की बेंच के समक्ष रखा जाए। जस्टिस दत्ता ने कहा कि मुझे डर है कि कल दो न्यायाधीशों की बेंच, न्यायविदों की राय का हवाला देते हुए मूल ढांचे के सिद्धांत पर संदेह कर सकती है और सीजेआई से 15 न्यायाधीशों की बेंच गठित करने का अनुरोध कर सकती है।
यूपीए(कांग्रेस) और एनडीए(भाजपा) सरकार का रुख अलग-अलग
केन्द्र की कांग्रेस नीत संप्रग सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के 2006 के फैसले के खिलाफ अपील दायर की थी, जबकि विश्वविद्यालय ने इसके खिलाफ एक अलग याचिका दायर की थी। भाजपा नीत राजग सरकार ने 2016 में सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि वह पूर्ववर्ती संप्रग सरकार द्वारा दायर अपील वापस लेगी। उसने अजीज बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1967 के फैसले का हवाला देते हुए दावा किया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है क्योंकि यह सरकार द्वारा वित्तपोषित एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है।
आठ दिन तक चली थी सुनवाई
आठ दिन की लम्बी सुनवाई के बाद सात सदस्यीय सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जे पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का मामला पिछले कई दशकों से कानूनी दांव-पेंच में फंसा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने 12 फरवरी, 2019 को विवादास्पद मुद्दे को निर्णय के लिए सात न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया था। इसी तरह का एक संदर्भ 1981 में भी दिया गया था। वर्ष 1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा था कि चूंकि एएमयू एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता। हालांकि, जब संसद ने 1981 में एएमयू (संशोधन) अधिनियम पारित किया तो इसे अपना अल्पसंख्यक दर्जा वापस मिल गया।
बाद में जनवरी 2006 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एएमयू (संशोधन) अधिनियम, 1981 के उस प्रावधान को रद्द कर दिया जिसके द्वारा विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा दिया गया था। केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार ने 2006 के इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील दायर की। विश्वविद्यालय ने भी इसके खिलाफ अलग से याचिका दायर की। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने 2016 में सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि वह पूर्ववर्ती संप्रग सरकार द्वारा दायर अपील वापस ले लेगी।