स्कोर कीपिंग : छत्तीसगढ़ उसके फ़ुटबॉल सिंस्कृ पि के नज़ररए से

चित्र : आयुष चंद्रवंशी

शब्द : जितेंद्र बिष्ट, आयुष चंद्रवंशी

Bhilai steel plant stadium, sector 1, Bhilai, Chhattisgarh

इस कहानी के बारीक बिंदुओं पर विमर्श करने के लिए जब मैं और मेरे सहयोगी आयुष बैठे तो सबसे पहले हमने अपने फ़ुटबॉल के साझा प्रेम पर ढेरों बातें की। बचपन की वो अनगिनत दोपहरे जो हमने FIFA ‘98  खेलते हुए बितायीं या फिर टेलिविज़न पर अंतराष्ट्रीय फ़ुटबॉल लीग के अपने मनपसंद खिलाड़ियों को अपने पसंदीदा विडियो गेम में खेलते देखते हुए। ये खेल के प्रति हमारे जुनून की पैमाईश थी। हालाँकि हम दोनों फ़ुटबॉल प्रेमियों के लिए 2000 के शुरुआती दशक जिस दौरान हम दिल्ली और छत्तीसगढ़ में बड़े हो रहे थे उस दौरान यूरोप और लैटिन अमेरिका जैसा फ़ुटबॉल मेनीया या पागलपन हमारे आसपास अनुपस्थित था।  क्रिकेट हमारा सबसे पसंदीदा खेल तो था हीं।  वैसे दिल्ली में फ़ुटबॉल फ़ेंस का एक सब कल्चर था जिससे मेरा सामना कॉलेज के दौरान हीं हुआ पर छत्तीसगढ़ में तो वो भी नहीं था। भारत के मुख्यधारा विकास से लम्बे समय तक कटे रहने के बाद 2000  में, छत्तीसगढ़ जब  मध्यप्रदेश से अलग हुआ, तब तक छत्तीसगढ़ में खेल को प्रोत्साहित करने की सुविधाएँ और एक्स्पोज़र की ख़ासी कमी थी। किसी भी जुनूनी बच्चे के लिए पहले से दरकिनार किए हुए खेल फ़ुटबॉल के लिए राज्य के बाहर हीं मौक़े खुल सकते थे।

Video game parlour at Bhilai, Chhattisgarh

आयुष ने सबसे पहले भारतीय फ़ुटबॉल कल्चर तब महसूस किया जब वो केरल, गोवा, बंगाल और मणिपुर जैसे राज्यों के खिलाड़ियों और फ़ुटबॉल फ़ेंस से स्कूल के बाद यात्राओं में मिला। पहले काम और फिर यात्राओं के दौरान अपने होम स्टेट से बाहर निकलने पर आयुष का झुकाव लोकल फ़ुटबॉल पटल की तरफ़ होने लगा जहाँ जहाँ भी वो गए। वो स्थानीय लोगों के साथ जो फ़ुटबॉल से जुड़े हुए थे ख़ूब बातें करते और एक आध मैच भी खेल लेते। ये बातचीत आयुष के लिए भारतीय फ़ुटबॉल और उसके इतिहास की परतें खोलने जैसा था। 1960 से पहले भारत को एशिया का ब्राज़ील कहा जाता था। 1951 और  1962 के एशियन गेम्स में भारत ने गोल्ड जीता था ये बात साबित करती है कि किस तरह से भारत का एशियाई फ़ुटबॉल पर दबदबा था। जैसे जैसे आयुष अपनी यात्राओं के दौरान खेल के मैदान या उसके बाहर खिलाड़ियों के साथ वक़्त बिताने लगा उन्हें फ़ुटबॉल खेलने वाले युवाओं और अन्य महाद्वीपों के फ़ुटबॉल कल्चर की बातें पता चलीं जिसके बारे में वो बचपन से सुनते आ रहे थे। साथ साथ इन्होंने ये भी देखा कि भारतीय फ़ुटबॉल के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य के बारे में लिखित रिकॉर्ड का नितांत अभाव है। इस ग़ैर ध्यानी और कम मीडिया कवरेज की वजह से फ़ुटबॉल की प्रसिद्धी देश के कुछ हीं भौगौलिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सिमट कर रह गयी है जबकि क्रिकेट पेन इंडिया कल्चरल फेनोंमेना है।

Source: Sportskeeda (2011)
Source: Sportskeeda (2011)

कॉलेज की यात्राओं के दौरान आयुष के लिए भारतीय फ़ुटबॉल को उसके चाहने वालों की नज़र से क़ैद करना एक शौक़ बन गया। आख़िरकार ये यात्रा उन्हें अपने घर, छत्तीसगढ़ ले आयी जहाँ उन्होंने अपने राज्य के फ़ुटबॉल सीन को समझने की कोशिश की। सामान्य तौर पर छत्तीसगढ़ को माओ विद्रोह से जोड़ा जाता है क्योंकि सालों का लम्बा संघर्ष और मीडिया नेरेटिव उसके इर्दगिर्द ही घूमता है। छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में हाल ही में अप्रैल 2021 में एक माओईस्ट मुठभेड़ में काफ़ी हिंसा हुई जिसमें 22 सुरक्षाकर्मी मारे गए ( संधु 2021) । आयुष के काम में उन सामान्य चीज़ों की झलक है जिसे कि बीजापुर में नज़रअन्दाज़ किया जाता है जैसे कि सरकारी स्पोर्ट्स एकेडमी में नौजवान खिलाड़ियों की उत्साह रोमांच भरी चीख़ें।

Hostel’s shoe rack at Bijapur sports academy, Bijapur, Chhattisgarh
New joining at kota stadium (Raipur, Chhattisgarh)
Neelam at kota stadium, (Raipur, Chhattisgarh)
A player at Chhattisgarh team’s selection at Korba, Chhattisgarh
Chander at Chhattisgarh team selection for nationals in (Korba, Chhattisgarh)
Practise session at Bijapur sports academy (Bijapur, Chhattisgarh)

बीजापुर से 160 किलोमीटर दूर माता रुक्मिणी गर्ल्ज़ हॉस्टल जगदलपुर, बस्तर में है। इस हॉस्टल में ना सिर्फ़ 500 लड़कियों की शिक्षा और रहने की व्यवस्था है पर इनकी अपनी महिला फ़ुटबॉल टीम भी है। ज़्यादातर खिलाड़ी आसपास के आदिवासी गाँव से हैं। शायद ऐसा लगता होगा कि इन लड़कियों के लिए इनसरजेंसी मुख्य समस्या होगी पर फ़ुटबॉल के खेल के ज़रिए वो पितृसत्तात्मक परिवार और सामाजिक ढाँचे पर प्रहार करती हैं। महिला खेलों के प्रति विरोध, खेल के दौरान उनके फ़ुटबॉल शॉट्स पहनने को लेकर और मासिक के दौरान उनके खेलने को लेकर दिखता है और ये भी प्रश्न उठाता है कि आख़िर फ़ुटबॉल उनकी कमाई का ज़रिया नहीं बन सकता और लड़कियों को ऐसे पेशे अपनाने को कहता है जो उनके लिए जेंडर उपयुक्त हों। कोच ने आयुष को बताया कि कई क़ाबिल लड़कियाँ इन दबावों की वजह से खेलना छोड़ देती हैं। हालाँकि कुछ इन सबके बावजूद खेलना जारी रखती हैं और खेल को ज़िंदा रखती हैं। कोच ने ये भी महसूस किया कि खेल की वजह से लड़कियाँ घबराने की जगह निडर हो जाती हैं। खेल के अनुशासन की वजह से वो और भी स्वतंत्र हो जाती हैं और परिवार के दबाव को खेल के प्रति अपने प्यार की वजह से संभालना भी सीख जाती हैं। हालाँकि सभी फ़ुटबॉल को व्यावसायिक तौर पर नहीं अपनाती पर एक ताक़त के साथ परेशानियों से निबटना जान जाती हैं।

A player at Mata Rukmini hostel, Jagdalpur, Chhattisgarh
Bastar zone’s women’s team at Narayanpur for a tournament (Chhattisgarh)

आयुष ने बताया कि दक्षिण छत्तीसगढ़ के मुक़ाबले भिलाई और रायपुर जैसे बड़े शहरों में खेल की ज़्यादा सुविधाएँ हैं। भिलाई के मशहूर स्टील प्लांट द्वारा स्थापित सुविधाओं की वजह भिलाई के आसपास खेल का ख़ासा माहौल है। राज्य के ग्रामीण इलाक़ों से आने वाले ज़्यादातर बच्चों को प्लांट के फ़ुटबॉल ग्राउंड में मुफ़्त कोचिंग दी जाती है। रायपुर के आधुनिक कोटा स्टेडीयम में लड़के और लड़कियों दोनों के प्रशिक्षण की व्यवस्था है। छत्तीसगढ़ की बाक़ी जगहों की तुलना में इन दो शहरी केंद्रों में मिलने वाली सुविधा की क्वालिटी और सहजता में काफ़ी फ़र्क़ है। सिर्फ़ इन शहरी केंद्रों में हीं सुविधाओं का सीमित होना ग्रामीण इलाक़ों के खिलाड़ियों के लिए अपनी क्षमता सुधारने के लिए अवरोधी है। यहाँ पर किसी व्यक्ति का  सामाजिक आर्थिक निन्मिकरण उसके खेल के लगाव से टकराता है। इसका उदाहरण छत्तीसगढ़ में खेलों की सुविधाओं की धीमी प्रगति है, जहाँ सुविधाएँ और जागरूकता बाक़ी देश के मुक़ाबले देर से पहुँचती है।

राज्य में खेल की आधारभूत सुविधाओं का विकसित होना हाल हीं में हुआ है। इस संदर्भ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की पहल ‘खेलबो जीतबो गढ़बो नवा छत्तीसगढ़’ एक बेंचमार्क क़दम है। 2019 की पहल से राज्य खेल विकास प्राधिकरण की स्थापना हुई जिसकी वजह से खेल नीतियों और निर्णयों में तेज़ी आयी। इस पहल के तहत विकसित बिलासपुर के स्पोर्ट्स ट्रेनिंग सेंटर को केंद्र सरकार ने खेलो इंडिया स्कीम जो खेल प्रोत्साहन के लिए है, को सेंटर ऑफ़ एक्सेलेंस के तौर पर स्वीकारा है (काइज़र 2021)।

Raipur women’s team practising at Kota stadium (Raipur, Chhattisgarh)
Audience from nearby villages came to watch women’s football tournament at Narayanpur, Chhattisgarh

इस सभी प्रयासों के बावजूद, फ़ुटबॉल अभी भी ‘ खेलबो जीतबो गढ़बो नवा छत्तीसगढ़’ पहल के तहत ज़रूरी आधारभूत सुविधाओं की कमियों से झूझ रहा है। तब भी आयुष और कोच ने जिन अभिभावकों से बातचीत की तो पाया कि ज़्यादातर अभिभावक अपने बच्चों को फ़ुटबॉल प्रेक्टिस के लिए भेजने को तैयार है। साथ साथ खेल सीखने के इच्छुक खिलाड़ी जिनसे आयुष पूरे राज्य में मिले उन्हें अंतरराष्ट्रीय टीमों की रणनीति की जानकारी, उनके कौशल, उनकी बनावट के बारे में काफ़ी कुछ इंटरनेट और टेलिविज़न की वजह से पता था। अपने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सहभागियों को स्क्रीन पर देख इन खिलाड़ियों को पारिवारिक और सामाजिक अवरोधों को परे रख अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करने का भरोसा सा मिला है, जिसे बाक़ी देश माओईस्ट इनसरजेंसी के अपने संकुचित चश्मे से देखता है।

आयुष के अपने गृह राज्य के फ़ुटबॉल कल्चर को देखने के नज़रिए पर एक कोच की ये बात बड़ीं अलग सी जान पड़ती है जिसका साधारण सा अनुवाद है, “एक सच्चा खिलाड़ी जो अभी हार गया हो वो शाम में जीतने के लिए खेलने को तैयार होगा। अगर वो शाम में हार जाए तो दूसरे दिन खेलने को तैयार होगा। आख़िरकार वो हार को परे रखना सीख जाएगा।”

References:

Kaiser, Ejaj. (2021). “Chhattisgarh on path to become a sports powerhouse”. The New Indian Express, 16 May 2021. Accessed 21 August 2021, https://www.newindianexpress.com/thesundaystandard/2021/may/16/chhattisgarh-on-path-to-becomea-sports-powerhouse-2303051.html

Sandhu, Kamaljit Kaur. (2021). “Ground report: Eerie silence at Bijapur where Maoists ambushed troops, locals recall how soil was soaked in blood”. India Today, 08 April 2021. Accessed 22 August 2021, https://www.indiatoday.in/india/story/ground-report-eerie-silence-at-bijapur-where-maoists-ambushed-troops-1788537-2021-04-08

Sportskeeda. (2011). “The Football Ecosystem Map of India (2011)”. Accessed 26 August 2021, https://www.sportskeeda.com/football/the-football-ecosystem-map-of-india-2011

Aayush is currently associated with Conflictorium‘s new museum project in Chhattisgarh as a Curator and Project Anchor. His personal projects explore different communities, alternative cultures and testifies to an abiding interest in using documentary photography and filmmaking to probe questions of pressing contemporary social relevance. 

This photo essay is based on his project “Beyond Ninety Minutes”, which explores the grassroots football culture in Chhattisgarh through the lived experiences of players across the state.    

Jitendra Bisht is Senior Analyst at the Social and Political Research Foundation.