नीली समुद्री चमक या ब्लू सी स्पार्कल : ग्लोबल वॉर्मिंग और भारतीय समुद्री परितंत्र

लेखन : जितेंद्र बिष्ट

सम्पादन : कविता मजूमदार और रिया सिंह राठौर

संदर्भ

हरेक साल नवंबर और दिसम्बर के महीने में अरब सागर तट के पास रहने वाले लोगो को रात के समय ख़ूबसूरत चमकीली नीली लहरें देखने को मिलती हैं। दिसम्बर 2020 में ऐसा हीं कुछ मुंबई के ज़ूहु और महाराष्ट्र के देवगड और मुरूड में भी देखने को मिला ( भालेराव 2020) । पिछले साल नवंबर में गोवा, कर्नाटक और केरल के तटीय इलाक़ों में भी नीले ज्वार भाटों को रिकॉर्ड किया गया  ( मेनेजेस 2021) । ऐसी जैव संदिपति, समुद्री प्लैंक्टन की प्रजातियों से उत्पन्न होती है। अधिकतर अति सूक्ष्म जीव जो ज्वार भाटे, प्लैंक्टन के साथ बहते हैं उन्हें समुद्री ईकोसिस्टम की आधारशिला माना जाता है क्योंकि जल फ़ूड चेन में इनकी भूमिका प्राथमिक भोजन निर्माता ( फ़ाइटोप्लैंकटन एवं प्लांट प्लैंकटन) और प्राथमिक उपभोक्ता ( ज़ूप्लैंकटन एवं ऐनिमल प्लैंकटन) की हैं।

स्थलीय पौधों की तरह हीं फ़ाइटोप्लैंकटन, फ़ोटोसिन्थिसस से जैविक पदार्थ तैयार करता है जिसे ज़ूप्लैंकटन खाते हैं, ये स्थल के शाकाहारियों की तरह होते हैं जिनका भक्षण फिर बड़े समुद्री जीव करते हैं। यहाँ तक कि ये मानना है कि विश्व के 50% प्राथमिक  भोजन उत्पादन में फ़ोटोप्लैंकटन का हाथ है इसलिए इनका अस्तित्व ग्लोबल फ़ूड चेन ( जल और थल दोनों) और परिणामस्वरूप पृथ्वी पर जीवन के लिए भी बहुत अहम है। इसका अर्थ ये है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में इनकी आबादी में बदलाव की वजह से, समूची फ़ूड चेन और वैश्विक ईकोसिस्टम पर व्यापक असर हो सकता है।

स्वस्थ ईकोसिस्टम के लिए प्लैंकटन प्रजातियों का होना अहम तो हैं पर कई प्रजातियाँ ऐसी भी है जो समुद्री जीवन के लिए घातक हैं, जैसे कि अरब सागर के नीले ज्वार भाटा। रिपोर्ट के मुताबिक़ मुंबई और कर्नाटक के तट पर दिखने वाले ये चमकीले नीले जीव नॉकटीलुका स्किनटील्लांस की प्रजाति है जिसे सी स्पार्कल के नाम से जाना जाता है, इसके अंदर पौधों और पशुओं दोनों के हीं गुण मिलते है ( शास्त्री 2020)। सी स्पार्कल के फूल मछली के लार्वा और दाएटोम ( फ़ोटो प्लैंकटन का एक प्रकार) खाते हैं और फिर अमोनिया का काफ़ी मात्रा में आस पास के पानी में विसर्जन करते हैं। इनकी मौजूदगी से घुलनशील ऑक्सिजन स्तर काफ़ी घट गया है। वैज्ञानिकों के अनुसार सी स्पार्कल की वजह से मछलियों, कोरल और अन्य समुद्री प्रजातियों के नष्ट होने की घटनाएँ सामने आती है ( राज 2020:1; ऐरनसोहन 2017)

 

भारतीय समुद्री ईकोसिस्टम पर असर

भारत की पश्चिमी सीमा पर चमकीले नीले ज्वार भाटा के बार बार दिखने का अर्थ है इस इलाक़े के ईकोसिस्टम में क्रमिक और ख़तरनाक परिवर्तन। अगर सी स्पार्कल की बढ़त ज़्यादा होती है तो ये मछलियों और अन्य इंवरटीब्रेट की मृत्यु दर को बहुत अधिक बढ़ाता है जो भारतीय समुद्री बायोडाइवरसिटी के लिए विनाशक है। आख़िरकार ये मछली उत्पादन को नुक़सान पहुँचाता है जिससे मत्स्य सप्लाई चेन प्रभावित होती है, प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से मत्स्य व्यवसाय में जुड़े करोड़ों लोगों पर इसका असर पड़ता है।  भारत की 8118 किलो मीटर लम्बी समुद्री सीमा पर 3200 से भी ज़्यादा मछली उद्योग से जुड़े गाँव हैं और 33 प्रमुख और गौण फ़िशिंग बंदरगाह हैं ( फ़िशरीज़ डिपार्टमेंट 2019; जकरिया )। भारत में कम से कम 3.5 मिलीयन समुद्री मछुआरे हैं, और कई परोक्ष रूप से इस सेक्टर से जुड़े हुए हैं। संयुक्त रूप से देश की जी डी पी में इनका योगदान 1.1%  और निर्यात में 3.3% है।

भारत में 2017-18 के कुल मछली उत्पादन, 12.59 मिलीयन मेट्रिक टन ( MMT) में से समुद्री मछली का हिस्सा 3.69 मिलीयन मेट्रिक टन ( MMT) 29% रहा है बाक़ी उत्पादन आंतरिक हिस्सों से प्राप्त हुआ। 1990 के दशक में समुद्री मछली की देश के मत्स्य उत्पादन में बड़ी हिस्सेदारी होती थी परन्तु 2000 की शुरुआत से इस हिस्से में काफ़ी गिरावट आयी है, यहाँ तक कि समुद्री मछली का उत्पादन स्थिर सा हो गया है (चित्र 1) 1950-51 में समुद्री मछली का कुल मत्स्य उत्पादन में 71% योगदान था जबकि आंतरिक स्रोतों का योगदान 29% था।  जो 2017-18 में ये योगदान विपरीत हो गया, समुद्री मछली का हिस्सा घटकर 29% और आंतरिक स्रोतों का योगदान  71% हो गया। समुद्री मछली उत्पादन का गिरता स्तर चिंता का विषय तो है ही,  सी स्पार्कल की बहुतायत ने इस जटिलता को और भी बढ़ा दिया है क्योंकि देश की समुद्री मछली के उत्पादन का ज़्यादा हिस्सा देश के पश्चिमी तट से आता है ( चित्र 2)।

Figure 1: Trend in India’s fish production since 2005-06

Source: DoF (2019)

 

Figure 2: State-wise share of marine fish production in India in 2017-18

Source: DoF (2019)

 

पर्यावरण सम्बंध और अवसर

नीति के संदर्भ में देखें तो सी स्पार्कल की बढ़त और अन्य घटनाएँ अनोखी चुनौतियाँ और उचित क़दम उठाने के अवसर पैदा करती हैं। 1998 से 2010 के बीच, नहीं भी तो 80 से भी ज़्यादा विभिन्न प्रकार के फाईंटोप्लैंकटन के प्रस्फुटन या विकसित होने के केस, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में मिले ( साहू 2018:263-266) । ऐसे कई प्रस्फुटन, जिसमें ख़ासकर नौकटीलुका स्किनटीलंस की उत्पत्ति की वजह समुद्री सीमा के साथ कूड़े फेंकने से फैले प्रदूषण से हुई है। इस वजह से ऑक्सिजन स्तर भी घट जाता है। बाद में, कोलम्बिया विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक़ अरब सागर में इस विस्तार की वजह हिमालय में घटते बर्फ़ के पहाड़ और पिघलते ग्लेशियर हैं जिसकी वजह से मैदानी हिस्सों में और अरब सागर के हिस्से में तापमान में काफ़ी फ़र्क़ आया है ( एरनसौन 2017)।

हालाँकि कुछ इस सम्बंध का विरोध करते हैं और प्रस्फुटन के बढ़ने का कारण स्वाभाविक दीर्घकालिक परिवर्तनशीलता को देते हैं ( प्रकाश 2012:1), जलवायु परिवर्तन के समुद्री प्लैंकटन पर प्रभाव पर हुए कुछ प्रमुख अध्ययनो का पुनरावलोकन करने पर पता चलता है कि पिछले कुछ सालों में समुद्री सतह के तापमान में परिवर्तन की वजह से इनकी संख्या में ख़ासा बदलाव आया है, पानी में कार्बन डाईऑक्सायड की मात्रा, स्वच्छ जल का प्रवाह, ये सभी ग्लोबल वॉर्मिंग और समुद्री अम्लीकरण से जुड़े हैं ( साहू 2018:263-266)। हैदराबाद के इंडियन नैशनल सेंटर फ़ॉर ओशन इंफ़ोरमेशन सर्विसेज़ ( INCOIS) , जो पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त संस्था है और अमेरिकी नेशनल ओशनिक ऐटमोसफ़ेयरिक एडमिनिसट्रेशन ( NOAA) की एक संयुक्त जाँच ने भी इस समीक्षा को सही साबित किया है ( चौधरी 2018) । इस जाँच से ये निष्कर्ष निकला कि सी स्पार्कल की बढ़ोतरी की वजह समुद्री सतह के बढ़ते तापमान जो ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से हो रही है नाकि तटीय कूड़े की वजह से।

इन नतीजों से ये सामने आता है कि समुद्री प्लैंकटन, तापमान परिवर्तन के प्रति बहुत संवेदनशील है और ये बदलाव समुद्री ईकोसिस्टम को लम्बे समय में बुरी तरह प्रभावित कर सकता है जिससे समूची फ़ूड चेन, कार्बन साइकल, आबादी, और इस व्यवस्था पर आधारित अर्थव्यवस्थाएँ बदलाव का सामना कर सकती हैं। ये इस बात को भी उजागर करता है कि पूरी दुनिया में लगातार समुद्री प्लैंकटन के विकास में हो रहे परिवर्तन की निगरानी, मछुआरों पर इनके प्रभाव और स्थानीय जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए ज़रूरी है। कुछ हद तक भारत में अभी INCOIS द्वारा भारतीय तट पर मरीन ऑब्ज़र्वेशन सिस्टम ( MOSAIC) और हाल हीं में एलगल ब्लूम इन्फ़ॉरमेशन सर्विस ( ABIS) ये काम कर रही हैं।

MOSAIC  जहाँ भारत के तटों पर पानी की क्वालिटी पर डेटा इकट्ठा करता है, ABIS सैटलायट मैपिंग ( ESSO – इंडियन नैशनल सेंटर फ़ॉर ओशन इन्फ़र्मेशन सर्विसेज़ 2021)  के ज़रिए फ़ाइटोप्लैंकटन की उपस्थिति और इसके विस्तार पर तात्कालिक जानकारी देता है। इस सेवा के ज़रिए सरकार के संभावित मछली ज़ोन परामर्श कार्यक्रम को भी सहायता मिलती है, ख़ासकर मछुआरों, संसाधन प्रबंधकों और इकोलोजिस्ट को अग्रिम चेतावनी के लिए ये बहुत कारगर है। साथ साथ, ये बायोडाईवार्सिटी की संरक्षित समुद्री इलाक़े में सतत निगरानी करती है और ऐसे इलाक़े को चिन्हित करती है जिन्हें भविष्य में ऐसे नामित करने की ज़रूरत है। भारत के 2020 के स्वतः राष्ट्रीय सर्वेक्षण (Voluntary National Review VNR) की 2030 के सस्टेनएबल डेवलपमेंट एजेंडा पर प्रगति के बारे में कुछ ताज़े आँकड़े चैप्टर SDG 14 में मिलते हैं। रिपोर्ट के हिसाब से 25 समुद्री संरक्षित क्षेत्र भारतीय प्रायद्वीप में, 106  द्वीप में हैं, जो संयुक्त रूप से देश के भौगोलिक क्षेत्र का 10,000 स्क्वेर किलो मीटर इलाका है ( नीति आयोग 2020) ।

VNR स्वतः राष्ट्रीय सर्वेक्षण (Voluntary National Review) का भी कहना है कि इंटेग्रेटेड नैशनल फ़िशरीज़ एक्शन प्लान ( NFAP) 2016  के हिसाब से केंद्र सरकार 15 मिलीयन लाभान्वितों को विभिन्न तरीक़ों से रोज़गार के अवसर देना चाहती है। ये स्पष्ट तरीक़े से समुद्री पर्यावरण की इकोलोजीकल सम्पूर्णता के महत्व पर ज़ोर देती है ताकि संरक्षित प्रजातियों पर कोई नकारात्मक असर ना हो।

NFAP जिसे NFP नैशनल फ़िशरीज़ पॉलिसी के नाम से 2020 में लॉंच किया गया, उसका ध्येय है —-

“संसाधनों और सम्बंधित हैबिटैट का कुशल प्रबंधन और सस्टेनएबल विकास, ईकोसिस्टम की सम्पूर्णता को बनाए रखना, बढ़ती आबादी की खाद्य एवं पोषण सुरक्षा की पूर्ति करना, फ़िशिंग और खेती करने वालों के अधिकारों की रक्षा और उनके आजीविका लचीलेपन को बनाए रखना”। ( DoF 2020)

NFP राष्ट्रीय फ़िशरीज़ पॉलिसी विशेष रूप से फ़िशरीज़ प्रबंधन के ईकोसिस्टम तरीक़े पर बल देती है जो समुद्री ईकोसिस्टम के सभी जैविक और अजैविक घटकों की समृद्धि संतुलन का प्रयास करता है और हिस्सेदारों की सामाजिक विशेषताओं और आर्थिक ज़रूरतों का भी ख़याल करता है। ये पृथक रूप से भारत की सम्भावित निरीक्षण क्षमताओं के सुधार को चित्रित करता है और ईकोलोजिकल और जैविक महत्ता क्षेत्रों ( Ecologically and Biologically Significant Areas EBSA) को प्रजाति विशेष और ज़ोन विशेष प्रबंधन प्लान के द्वारा सुरक्षित करने का प्रयास करता है। अगर इन्हें सही तरीक़े से लागू किया जाए तो इस प्रासंगिक और स्थानीय प्रबंधन प्रणाली द्वारा SDG 14 के अन्तर्गत भारत के बायोडाईवर्सिटी संरक्षण प्रयासों को उछाल मिल सकता है। साथ ही साथ, ये पॉलिसी मारीकल्चर यानि खारे पानी में व्यावसायिक समुद्री प्रजातियों की खेती की सलाह देती है और आजीविका अवसरों के अन्य उपायों को भी प्रधानता देती है क्योंकि इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर छोटे सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर मछुआरे काम करते हैं।

भारत की ब्लू एकनॉमिक पॉलिसी (BEP) भी समुद्री फ़िशिंग की निरंतरता और अतिसंवेदनशील समुद्री ईकोसिस्टम ( Economic Advisory Council to Prime Minister 2020) को किसी भी प्रकार के दुष्प्रभावों से सुरक्षित रखने पर ख़ास ज़ोर देती है। NFP की तरह हीं BEP में भी एक अलग हिस्सा मारीकल्चर के महत्व और ज़रूरत को प्रधानता देता है। इनमे से कुछ सुझावों को अभी हीं प्रधानमंत्री मत्स्य सम्पदा योजना (PMMSY) के हिस्से में शामिल कर लिया गया है जिसे 2020 में स्वीकृति मिली है। इसका महत्वकांक्षी लक्ष्य भारत के कुल मछली उत्पादन को 2018-19  के  137.6 लाख मिलियन टन से बढ़ाकर 2024-25  तक 220 लाख मिलियन टन करना है ( प्रेस इन्फ़र्मेशन ब्यूरो 2020) ।

हालाँकि इस योजना के कुल निवेश 20,000 करोड़ के 42%  को आधारभूत ढाँचे के निर्माण और फ़िशरीज़ के उच्च स्तर के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। ये समुद्री ईकोसिस्टम प्रबंधन के उत्पादन केंद्रित दृष्टिकोण को हीं ईकोसिस्टम केंद्रित प्रस्ताव की जगह प्रमुखता देता है, जिसे NFP में विशिष्ट रूप से दिखाया गया है।

 

निष्कर्ष

हालाँकि हम सिर्फ़ ऊपर चर्चा किये गए उपायों के सम्भावित लाभ के विषय में अनुमान हीं लगा सकते हैं, समुद्री तटों पर रहने वाले समूहों की मौसमी मार से सुरक्षा के लिए अधिक निवेश की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। पूर्व चेतावनी सिस्टम जैसे ABIS और सतत निरीक्षण बेहतर नतीजों के लिए उतने हीं महत्वपूर्ण हैं जितने फ़िशिंग के सस्टेनएबल तरीक़ों का प्रोत्साहन और निम्न स्तर मछुआरों का आजीविका के अन्य अवसरों की तरफ़ शिफ़्ट होना क्योंकि समुद्री बायोडाईवार्सिटी में क्रमिक नुक़सान की वजह से इन पर सबसे ज़्यादा असर पड़ेगा। समुद्री तटों के पास प्रस्फुटन की बढ़ती घटनाओ का असर अनुमानित तौर पर 150 मिलियन से ज़्यादा लोगों पर पड़ेगा जो अरब सागर के पास रहते हैं, बहुदेशीय शोध और निरीक्षण मेकनिज़म से क्षेत्र में भविष्य के समुद्री ईकोसिस्टम को समझा जा सकता है और बदलते मौसम के साथ आए बदलावों को कैसे अपनाया जाए उससे भी निपटा जा सकता है।

 

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