टिकाऊ या सस्टेनएबल उपभोग : एक दक्षिण वैश्विक नज़रिया

लेखक : निखिल वेरघिस मैथ्यू

सम्पादन : रिया सिंह राठौर एवं प्रियंवदा चौधरी

1992 में कनाडा के व्यवसायी मॉरीस स्ट्रॉंग की अध्यक्षता में हुई अर्थ समिट या वैश्विक शिखर सम्मेलन

में सस्टेनएबिलिटी की वैश्विक परिचर्चा ने टिकाऊ उपभोग के परिवर्तन होने की ज़रूरत पर काफ़ी ज़ोर दिया। यह पहला मौक़ा था जब सस्टेनएबिलिटी पर विश्व स्तर पर बात चीत की गयी। मॉरीस स्ट्रॉंग तेल और गैस के क्षेत्र में काफ़ी शोहरत और पैसा हासिल कर चुके थे। कुछ ही सालों बाद 1994  में ओसलो की सस्टेनएबल उपभोग विचार गोष्ठी में इस विषय के इर्द गिर्द फैली उलझनों को दूर करने के लिए इसे सही तरीक़े से परिभाषित करने की बात हुई और इसे कुछ इस तरह परिभाषित करने का निर्णय लिया गया। “ वस्तुओं और सेवाओं का ऐसा उपभोग जो हमारी सामान्य ज़रूरतें पूरी कर सके, जिससे हमारे जीवन को अच्छी गुणवत्ता मिले, जो प्राकृतिक सम्पदा के न्यूनतम इस्तेमाल , विषैले पदार्थों, कचरे एवम् प्रदूषको के पर्यावरण में न्यूनतम उत्सर्जन और जिससे आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकताओं पर कोई ख़तरा पैदा ना हो।” कुछ इस तरह से टिकाऊ या सस्टेनएबल उपभोग को परिभाषित किया गया।

हालाँकि मुख्यधारा के विकास की जो धारणायें हैं वो सैद्धांतिक और वास्तविकता दोनों हीं स्तरों पर इस बात का समर्थन करती हैं कि सस्टेनएबल उपभोग की वैचारिक नींव,  सामाजिक परिस्थियों एवं उत्पादन सम्बन्धों से अनभिज्ञ है। सारे प्रयास व्यापार को हमेशा की तरह सिर्फ़  स्थिर रखने की तरफ़ हीं केंद्रित हैं। व्यक्तिगत उपभोग के तरीक़े सस्टेनएबिलिटी सिद्धांतों से काफ़ी अलग हैं। प्रकृति और मनुष्य के पारस्परिक सम्बन्धों के बीच फैली भ्रांति मानवीय विकास और पर्यावरण के ह्रास को और भी गहराती है। सस्टेनएबिलिटी की मुख्यधारा की समझ सामाजिक और पर्यावरणीय परस्परिकता को अप्रासंगिक क़रार देती है।

इसका प्रमाण यूनाइटेड नेशन की पर्यावरण और विकास कॉनफ़्रेंस के अजेंडा 21 के अंश से मिलता है। स्थानीय निवासियों और समुदायों की पहचान और सशक्तिकरण वाला हिस्सा ये दर्शाता है कि अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसियों और सरकारों को वित्तीय सहायता और दूसरे साधन मुहैया कराने चाहिए जिससे कि स्थानीय लोगों और समुदायों को सस्टेनएबल विकास के लिए ट्रेनिंग मिले और वो राष्ट्रीय स्तर पर सस्टेनएबल और समान विकास में अपनी भागीदारी दे सकें। ( संयुक्त राष्ट्र संघ 1993)

उत्तर ग्लोबल की तरफ़ केंद्रित विकास के ऐसे तरीक़ों को प्रोत्साहन देना ताकि खुले बाज़ार फले फूलें। ये इस बात को तर्कसंगत करता है कि आर्थिक विकास और सस्टेनएबिलिटी की प्रचलित नीतियाँ मोटे तौर पर पूँजी और उसके समर्थकों को बढ़ावा देती है और पूँजी की प्रकृति की मिसाल को वैधता देती है। ( लियोडाकिस 2010; फ़ॉस्टर 2014)

पूँजी संग्रहण की रुकावटों को पहले से ग़ैर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों में  निवेश को प्रोत्साहित कर दूर किया जा सकता है ( स्वीजी 1967) । दक्षिणी ग्लोबल विचारक, बहुराष्ट्रीय समझौतों की भूमिका की समीक्षा कर ये समझ पाए हैं कि किस तरह प्रकृति को वस्तु की तरह देखा जाता है।स्कॉलर, अर्चना प्रसाद ने बताया है कि रेड प्लस पद्धति की रोशनी में ग्रीन पूँजीवाद का स्थायीकरण हो गया है। रेड प्लस वो ज़रिया बना जिससे कि ग्रीन पूँजीवाद और भी पनपा। पूँजीवाद के गहन संकट और अनेक संस्थानो के गिरते मुनाफ़े के मुद्दों को सुलझाने की ज़रूरत ने इसे बढ़ावा दिया (प्रसाद 2020)।

80%  से भी ज़्यादा विश्व बाज़ार पर नियंत्रण रखने वाले दिग्गज कॉर्परेशन के लिए वैश्विक अर्थव्यव्स्था अधिकतम गतिविधियों का क्षेत्र है। यहाँ वस्तुओं की उत्पादन चेन कई कड़ियों में पूरी दुनिया में फैली हुई हैं ( वीडमैन 2015) ।वैश्विक उत्पादन और व्यापार नेट्वर्क के मूलभूत पुनर्गठन ने ग्रीन पूँजीवाद की स्थिति और भी मजबूत कर दी है। इसकी वजह से लोगों की ग़रीबी और अपनी जगह से बेदख़ली बढ़ रही है और ग्रीन हाउस गैस के निकास का उद्देश्य तो कहीं खो सा गया है।

यदि सम्पूर्ण विश्व को “एक विशाल पेट्रोल पम्प”( हॉर्वी 2015) की तरह समझा जाए तो हरित पूँजीवाद या ग्रीन कैपिटलिज़म और बाज़ार पर्यावरणवाद,  कॉर्परेट ग्रीनवॉशिंग जैसी प्रणालियों की अनुमति देता है जो ट्रान्सेंडडेंटल बदलावों के कुछ प्रयासों को कमज़ोर करता है। जबकि इसकी कार्यप्रणाली, ध्यान फ़र्म से हटा कर, उलझनों को और बढ़ा कर, विश्वसनीयता को कमज़ोर करती है, साथ हीं मूल्यवान विकल्पों की आलोचना करके और भ्रामक तरीक़े से फ़र्म के उद्देश्यों को प्रसारित करती है ( ब्यूडिनस्की एवं ब्राइयंट 2013) । हरित पूँजीवाद या ग्रीन कैपिटलिज़म, ग़ैर मानवीय विचार को ज़रूरी तौर पर बाहरी समझने पर ज़ोर डालता है, वो मनुष्य के अस्तित्व को ज़िम्मेदारी से मुक्त करता है जिस की वजह से वो  उस सामाजिक परिकल्पना के मेट्रिक्स, जो उपभोग और उत्पादन प्रणाली निर्धारित करती है से भी आज़ाद हो जाता है। इसलिए समकालीन उत्पादन सम्बन्धों के तर्क के अनुसार, माइक्रो लेवल व्यवहार को ज़्यादा प्रधानता दी जाती है जो कि विशाल ढाँचे के मुद्दों के विचार से बिलकुल अलग है जो आधुनिक जीवनशैली के बिंदुओं को जोड़ती है।

पूँजी का केंद्रीकरण, जिसका इस पेपर में हवाला दिया गया है और ‘विश्व बाज़ार’ का विस्तार, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बड़े बाज़ार तक पहुँचने की ज़रूरत के इर्द गिर्द पनपता है, जहाँ से इन्हें आसानी से सस्ते मज़दूर और कच्चा माल मिल सके ( सुवंदी 2019) । पूँजी के वैश्विक विस्तार की प्रणाली, जो ग्लोबल उत्तर में केंद्रित है, को दूसरे विश्व युद्ध के बाद नियंत्रित किया गया। ये नियंत्रण सिस्टम की सहजता की पुनःप्रस्तुति की वजह से ग़ायब हो चुका है, परिणामस्वरूप वैश्विक स्तर पर पूँजी का केंद्रीकरण सशक्त हुआ है ( पट्टनाइक 2018) । इसलिए ये तर्क दिया जाता है कि कि अभी के औद्योगिक विकास के चरण में विभिन्न देशों के बीच के आपसी सम्बन्धों की आधारशिला इस अनिवार्य सच्चाई पर आधारित है जिसके अनुसार थोड़े से देशों के चुनिंदा कोरपोरेशन विश्व बाज़ार को नियंत्रित करते हैं। इससे ग्लोबल उत्तर से ग्लोबल दक्षिण की तरफ़ पूँजी का काफ़ी संचार होता है, हमें उत्पादन का विकेंद्रीकरण भी दिखलाई पड़ता है ( सुवांदी 2019)।

उत्पादन के विकेंद्रीकरण से  ये अनुमति मिलती है, जिससे मज़दूरो की आवाजाही पर नियंत्रण और पूँजी की सहज संचार की विरोधी नीति की वजह से ग्लोबल दक्षिण से सिर्फ़ मज़दूरी नियंत्रित करने से हीं अतिरिक्त अर्थ का ख़ासा नुक़सान होता है (पट्टनायक एवं पट्टनायक 2015)। ग्लोबल उत्तर से विकासशील देशों में तक़रीबन 2ट्रिल्यन यू एस डॉलर की सम्पत्ति का अकेले साल 2012 में प्रवाह हुआ था ( सुवंदी 2019) ये इस बात का उदाहरण देता है कि किस तरह से ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ किसी देश की अर्थव्यवस्था का बिना मुआवज़े के दोहन करती है। ग्लोबल दक्षिण में मज़दूरों का शोषण किया जाता है, उत्पादन का ग्लोबलाइज़ेशन, केंद्रीय और पेरीफेरी अर्थव्यवस्थाओ में मौजूद, मज़दूरी की विशाल असमानताओं पर निर्धारित किया जाता है। ये असमानताएँ उनकी उत्पादकता की असमानताओं से कहीं ज़्यादा बड़ी हैं।

2021 की यूनाइटेड नेशन क्लाइमेट कॉन्फ़्रेन्स, ग्लासगो में  1 नवम्बर , 2021 से होने वाली है। इस बारे में ये ज़ोर देने की ज़रूरत है कि सस्टेनएबिलिटी के बारे में कोई भी प्रामाणिक और प्रभावी क़दम सामाजिक न्याय एवं विस्तृत निष्पक्षता के रास्ते में निर्णायक साबित होंगे। इसे मुख्यधारा अर्थव्यवस्था के विकास और वृद्धि मॉडल की परेशानियों को ध्यान में रखते हुए आँकना चाहिए। शेखी बघारने वाले वाले यूरोपीय कमीशन 2019 के नीति दस्तावेज़, ‘2050 तक पर्यावरण निष्पक्ष’ नीति के उन चार अंगों को रेखांकित करता है जो कार्बन निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी हैं। बिंदु दो और तीन “निजी निवेश को बढ़ाने” और “बाज़ार को सही संकेत देने” की हिमायत करते हैं। ये नीति विकसित देशों की उस पूर्वनिर्धारित सोच पर आधारित है जो “ बिज़्नेस एज यूज़ूअल” या हमेशा की तरह स्थिर व्यापार से ग्रस्त है। इस सोच को अब और माना नहीं जा सकता क्योंकि ये पर्यावरण बदलाव के उचित प्रयासों को ज़ब्त कर लेती है।

 

1 यहाँ उत्पादन सम्बन्धों का तात्पर्य उस सम्बंध से है जो लोगों की पूँजी या लेबर स्वामित्व पर आधारित है। एक सामान्य वस्तु उत्पादन व्यवस्था में, उत्पादन सम्बंध जाति, पितृसत्ता और रंगभेद जैसे सामाजिक घटकों की मध्यस्थता से तय होते हैं। इन्हें पूर्व पूँजीवाद शोषण के स्वरूप की तरह माना जा सकता है, तत्कालीन उत्पादन सम्बन्धों का तर्क, बाज़ार अर्थव्यवस्था में इनकी गुंजाइश से बनता है, जिससे कि प्रभावी तौर पर वो परिस्थिति पैदा होती है जब पिछड़ा सामाजिक आर्थिक निम्न वर्ग उत्पादन लागत को कम करता है।

2 नवउदारतावाद/ प्रकृति के वस्तुकरण के परिदृश्य में, उदाहरण के लिए पर्यावरण का वस्तुकरण, कार्बन क्रेडिट की बात अपने आप में एक तरह की पूँजी है।

3 इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए यहाँ रेफ़र करें।

4 “ग्रीन कैपिटलिज़म इस व्यवस्थित सोच पर आधारित है कि प्रकृति का वास्तविक मूल्य उसका मुद्रा मुनाफ़ा है। इस सोच की प्रकृति अपने आप में प्रतिकूल है क्योंकि एक तरफ़ तो अपने “ग्रीन” अजेंडा में ये पृथ्वी के संसाधनों के ह्रास को रोकने की बात करती है जो “आर्थिक पागलपन” की वजह से हो रहा है, ये उस पूँजीवाद को भी पोषित करता है जो संचित करने की व्यवस्था से जुड़ा है जो प्रकृति को पूँजी बटोरने का ज़रिया मात्र मानता है। इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए यहाँ रेफ़र करें।

 

References

Budinsky, Jennifer and Susan Bryant. (2013). ““It’s Not Easy Being Green”: The Greenwashing of Environmental Discourses in Advertising.” Canadian Journal of Communication 38: 207-226.

Dolan, Paddy. (2002). “The Sustainability of “Sustainable Consumption.” Journal of Macromarketing 22 (2): 170-81.

European Commission. (2019). Going Climate-neutral By 2050: A Strategic Long-term Vision for a Prosperous, Modern, Competitive and Climate-Neutral EU Economy. Luxembourg: Luxembourg: Publications Office of the European Union.

Foster, John Bellamy. (2014). “Paul Burkett’s Marx and Nature Fifteen Years After.” Monthly Review 66 (7). Accessed 28 May 2021, https://monthlyreview.org/2014/12/01/paul-burketts-marx-and-nature-fifteen-years-after/.

Harvey, David. (2015). Seventeen Contradictions And The End Of Capitalism. London, United Kingdom: Profile Books.

Liodakis, George. (2010). “Political Economy, Capitalism and Sustainable Development.” Sustainability 2(8): 2601-2616.

Patnaik, Utsa and Prabhat Patnaik. (2015). “Imperialism in the Era of Globalization.” Monthly Review 67(3). Accessed 29 May 2021, https://monthlyreview.org/2015/07/01/imperialism-in-the-era-of-globalization/.

Patnaik, Prabhat. (2018). “Globalization and the Peasantry in the South.” Agrarian South: Journal of Political Economy 7(2): 234-248.

Prasad, Archana. (2020). “Ecological Crisis, Global Capital And The Reinvention Of Nature: A Perspective From The Global South.” In Rethinking The Social Sciences With Sam Moyo edited by Praveen Jha, Paris Yeros, and Walter Chambati. New York, United States of America: Columbia University Press.

Suwandi, Intan. (2019). “Labor-Value Commodity Chains: The Hidden Abode of Global Production.” Monthly Review 71 (3). Accessed 27 May 2021, https://monthlyreview.org/2019/03/01/global-commodity-chains-and-the-new-imperialism/

Suwandi, Intan, R. Jamil Jonna, and John Bellamy Foster. (2019). “Global Commodity Chains And The New Imperialism.” Monthly Review 70 (10). Accessed 28 May 2021, https://monthlyreview.org/2019/03/01/global-commodity-chains-and-the-new-imperialism/

Sweezy, Paul. M. (1967). “Rosa Luxemburg’s ‘The Accumulation of Capital’.Science & Society 31 (4): 474-485.

United Nations. (1993). Report Of the United Nations Conference on Environment and Development. New York, United States of America: United Nations. 

United Nations Sustainable Development Goals. (n.d.). “Sustainable consumption and production.” Accessed 1 June 2021, https://sustainabledevelopment.un.org/topics/sustainableconsumptionandproduction.  

Wiedmann, Thomas,  Heinz Schandl, Manfred Lenzen, Daniel Moran, Sangwon Suh, James West, and Keiichiro Kanemoto. (2015). “The Material Footprint Of Nations.” Proceedings of the National Academy of Sciences of the United States of America 112 (20): 6271-6276.