सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों को मंजूरी देने के संबंध में राष्ट्रपति के संदर्भ पर फैसला सुरक्षित रखते हुए पूछा कि यदि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदाधिकारी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहते हैं तो क्या वह निष्क्रिय बैठ सकता है।
सीजेआई बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, विक्रमनाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंदुरकर की संविधान पीठ ने 10 दिन तक चली मैराथन सुनवाई में राष्ट्रपति के संदर्भ पर अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, अभिषेक सिंघवी, गोपाल सुब्रमण्यम, अरविंद दातार और अन्य सहित कानूनी दिग्गजों की दलीलें सुनीं। यह अनुच्छेद 200 और 201 के आसपास केन्द्रित था और मुख्य मुद्दा यह था कि क्या संवैधानिक अदालतें राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समयसीमा निर्धारित कर सकती हैं। सुनवाई के अंतिम दिन अदालत ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को उस समय टोका जब उन्होंने शक्तियों के विभाजन को संविधान की मूल संरचनाओं में से एक बताया और कहा कि अदालत को समयसीमा तय नहीं करनी चाहिए और राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। चीफ जस्टिस ने कहा कि कोई भी व्यक्ति चाहे कितने भी ऊँचे पद पर क्यों न हो, संविधान के संरक्षक के रूप में, मैं सार्वजनिक रूप से कहता हूँ कि मैं शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत में दृढ़ विश्वास रखता हूं और यद्यपि न्यायिक सक्रियता होनी चाहिए, लेकिन न्यायिक अतिवाद या दुस्साहस नहीं होना चाहिए। लेकिन साथ ही, यदि लोकतंत्र का एक पक्ष अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में विफल रहता है, तो क्या संविधान का संरक्षक शक्तिहीन होकर निष्क्रिय बैठा रहेगा?
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि कई मामलों में विधेयक चार साल से अधिक समय तक मंजूरी के इंतजार में पड़े हैं जबकि विधान सभा का कार्यकाल पांच साल का होता है। ऐसे में राज्य सरकारों की चिंताओं को दरकिनार नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी संकेत दिया कि वह राष्ट्रपति के रेफरेंस का जवाब देगा और इस मुद्दे पर भविष्य के लिए कानून तय करेगा। आठ अप्रैल को दो जज बेंच की वैधता पर नहीं जाया जाएगा। दो जज बेंच ने जिस तरह से संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या की है, वह उससे बंधा हुआ नहीं है।
रेफेरेंस के जरिए सुप्रीम कोर्ट से राष्ट्रपति के 14 सवाल
विधान सभा से पारित विधेयकों की मंजूरी के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति को एक समयसीमा में बांधने के सुप्रीम कोर्ट के आठ अप्रैल, 2025 के फैसले पर पर राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे हैं। तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल तमिलनाडु के फैसले पर राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट को रेफरेंस भेजा है। राष्टï्रपति का रेफरेंस केन्द्र और राज्यों के बीच के संबंधों के लिए अहम है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमति होने पर आमतौर पर सरकार पुनर्विचार याचिका दायर करती है लेकिन इस संवैधानिक मुद्दे पर राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से सवाल पूछकर एक नई पहल की है। राष्ट्रपति के रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच क्या फैसला लेगी- इस पर सभी की निगाहें टिकी हुई हैं।
राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकार
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर फैसला लेने के संबंध में राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा निर्धारित करने से संबंधित आठ अप्रैल, 2025 के फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे हैं। राष्ट्रपति मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए कहा कि वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा प्रतीत होता है कि सार्वजनिक महत्व के निम्नलिखित कानूनी सवाल उठे हैं, जिन पर सुप्रीम कोर्ट की राय लेने की आवश्यकता है। संविधान का अनुच्छेद 143(1) सुप्रीम कोर्ट से परामर्श करने से जुड़ी राष्ट्रपति की शक्ति से संबंधित है। इस शक्ति का इस्तेमाल राष्ट्रपति तब करता है जब उसे यह प्रतीत होता है कि किसी कानून या किसी तथ्य को लेकर कोई सवाल खड़ा हुआ है या इसकी आशंका है। राष्ट्रपति को जब यह लगता है कि कोई सवाल सार्वजनिक महत्व से जुड़ा है और यदि इस पर सुप्रीम कोर्ट की राय प्राप्त करना जरूरी है, तो वह प्रश्न को विचारार्थ सुप्रीम कोर्ट को भेज सकता है और शीर्ष अदालत सुनवाई के बाद अपनी राय से राष्ट्रपति को भेज सकता है।
क्या हैं यह 14 सवाल
राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से निम्नलिखित प्रश्न पूछे हैं- (1) जब भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है तो उसके पास क्या संवैधानिक विकल्प क्या हैं? (2)क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक प्रस्तुत किए जाने पर वह अपने पास उपलब्ध सभी विकल्पों का उपयोग करते हुए मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह को लेकर बाध्य है? (3) क्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल द्वारा संवैधानिक विवेक का उपयोग न्यायोचित है? (4) क्या भारतीय संविधान का अनुच्छेद 361, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के कार्यों के संबंध में न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण पाबंदी लगाता है? (5) राज्यपाल द्वारा शक्तियों के इस्तेमाल की संवैधानिक रूप से निर्धारित समयसीमा और प्रक्रिया के अभाव में क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत सभी शक्तियों के उपयोग के लिए न्यायिक आदेशों के माध्यम से राज्यपाल के वास्ते समयसीमा और प्रक्रिया निर्धारित की जा सकती है। (6) क्या संविधान के अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है? (7) संवैधानिक रूप से निर्धारित समयसीमा और राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के इस्तेमाल के तरीके के अभाव में क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत विवेकाधिकार के इस्तेमाल के लिए न्यायिक आदेशों के माध्यम से राष्ट्रपति के लिए समयसीमा और प्रक्रिया निर्धारित की जा सकती है। (8) राष्ट्रपति की शक्तियों को नियंत्रित करने वाली संवैधानिक व्यवस्था के आलोक में क्या राष्ट्रपति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत संदर्भ के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने की आवश्यकता है और जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजता या अपने पास सुरक्षित रखता है, तो सुप्रीम कोर्ट की राय लेनी होगी? (9) क्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति के फैसले कानून बनने से पहले के चरण में न्यायोचित हैं? (10) क्या अदालतों को किसी विधेयक के कानून बनने से पहले उसकी विषय-वस्तु पर किसी भी तरह से न्यायिक निर्णय लेने की अनुमति है? (11) क्या संवैधानिक शक्तियों का उपयोग और राष्ट्रपति/राज्यपाल के आदेशों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत किसी भी तरह से प्रतिस्थापित किया जा सकता है? (12) क्या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गया कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू माना जाता है? (13) भारत के संविधान के अनुच्छेद 145(3) के प्रावधान के मद्देनजर क्या अदालत की किसी भी पीठ के लिए यह तय करना अनिवार्य नहीं है कि उसके समक्ष पेश याचिका में संविधान की व्याख्या की जरूरत है और इसे न्यूनतम पांच न्यायाधीशों की पीठ को भेजा जाए? (14) क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट की शक्तियां प्रक्रियात्मक कानून के मामलों तक सीमित हैं या यह निर्देश जारी करने/आदेश पारित करने तक विस्तारित है?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर फैसला करने को लेकर सभी राज्यपालों के लिए समयसीमा निर्धारित की गई है और कहा गया है कि राज्यपालों को उनके समक्ष प्रस्तुत किसी भी विधेयक के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत कोई विवेकाधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह का अनिवार्य रूप से पालन करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि यदि राज्यपाल द्वारा विचार के लिए भेजे गए विधेयक पर राष्ट्रपति मंजूरी नहीं देता है तो राज्य सरकारें सीधे सर्वोच्च अदालत का रुख कर सकती हैं।
रेफरेंस के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पलटा जा सकता है या नहीं ?
सुप्रीम कोर्ट ने 2जी स्पेक्ट्रम के मामले में स्पष्ट किया था कि रेफरेंस के माध्यम से शीर्ष अदालत के निर्णय को पलटा नहीं जा सकता। अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति को परामर्श का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट को भी अधिकार है कि वह राष्ट्रपति के सवालों का जवाब न दे। वह पहले भी ऐसा किया जा चुका है। केरल शिक्षा विधेयक तथा अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के रेफरेंस पर जवाब देने से इनकार कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट का मत था कि इस तरह के विवाद को समान्य प्रक्रिया के तहत ही निपटाया जा सकता है।
पुनर्विचार याचिका का विकल्प
यदि केन्द्र सरकार मानती है कि तमिलनाडु के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही नहीं है तो वह पुनर्विचार याचिका दायर कर सकती थी। पुनर्विचार याचिका में सफलता नहीं मिलने पर क्यूरेटिव याचिका भी दायर की जा सकती थी। दरअसल, तमिलनाडु के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या की है। कई राज्यों कर निर्वाचित सरकारों को विधेयकों की मंजूरी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। यह सभी विपक्षी दलों की राज्य सरकारें हैं। केरल सरकार का मामला भी विचाराधीन है। तमिलनाडु सरकार की याचिका पर निर्णय से पहले सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब के मामले में भी फैसला सुनाया था। तमिलनाडु के मामले में राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय करने के निर्देश से एक पेंचीदा संवैधानिक सवाल निश्चित रूप से खड़ा हो गया है। राष्ट्रपति को यह निर्देश देना कि राज्यपाल से विधेयक प्राप्त होने पर वह सुप्रीम कोर्ट की राय लें, कानूनी परम्पराओं से हटकर है। राष्ट्रपति को निर्देश देने के फैसले पर बहस छिड़ी हुई है। पुनर्विचार याचिका के बजाए राष्ट्रपति का रेफरेंस अटपटा कदम जरूर है और इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के निर्णय का इंतजार रहेगा।
